SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधनामार्गः सर्वार्पण २२३, हिंसा भी तो हिंसा ही है । मनुष्य ज्ञात और अज्ञात भावसे न जाने कितनी हिंसा करता है। इन हिंसादि दोषोंसे, भोजनादि आवश्यक भोगोंसे, साधकको किस प्रकार मुक्त होना चाहिए ? वचनकारोंने ऊपरके दो वचनोंमें इसका उत्तर दिया है । बद्धत्व किसी कममें नहीं है। किसी कर्ममें पाप अथवा दोषः नहीं है किंतु वह कर्म जिस भावसे किया जाता है उसमें है । इसलिए साधकको सर्पिण भावसे ही सब कर्म करने चाहिए। परमात्मार्पण भावसे भोगा हुयाः भोग प्रसाद कहलाता है। प्रसाद ग्रहण मुक्तिका साधन है। परमात्मार्पण भावसे प्रत्येक कर्म करनेसे जीवन यापन करनेके लिए किये जानेवाले कर्मः और लिए गए भोगके दोषोंसे साधक अलिप्त रहता है । वचन-(२०८) पंचेंद्रियोंके गुणोंसे अकुला गया । मनके विकारोंसे भ्रमितः हुआ । धनके विकारोसे धृति नष्ट हुई । शरीरके विकारोंसे गतिहीन हुआ। तबः तेरी शरण पाया कूडल संगमदेव । (२०६) मेरा योग-क्षेम तेरा है । मेरी लाभ-हानि तेरी है। मेरा मान-- अपमान तेरा है । मैं वृक्ष पर लगे फलकी भांति हूँ कूडलसंगमदेव । (२१०) प्रकाशद्वार, गंधद्वार, शब्दद्वार, ऐसे छः द्वारोंके मिलनेके स्थानपर नाद-बिंदु-कला नामके सिंहासन पर विराजमान होकर शब्द-रूप-रस-गंधादि सेवन करनेवाला विना तेरे और कौन है स्वामो ? जिह्वाकी नोक पर बैठ करके षड्रसान्नका स्वाद लेनेवाला तेरे अतिरिक्त और कौन है प्रभु ! मनरूपी महाद्वारपर खड़े रहकर शांति समाधान पानेवाला तेरे सिवा और कौन हो सकता है ? सर्वेद्रियोंको सर्व-मुखसे भोगप्रसाद देनेकी कृपा करनेवाली कृपामूर्ति निजगुरुस्वतंत्र सिलिगेश्वरके अतिरिक्त और कौन है मेरे नाथ ! (२११) शरीर तेरा कहने पर मेरा दूसरा शरीर कहां ? मन तुझे अर्पण करने पर मेरा मन कहां रहा ? धन-सर्वस्व तेरे चरणोंमें अर्पित होनेपर मेरा . धन क्या रहा ? इस प्रकार तन-मन-धन तेरा कहनेपर दूसरा विचार ही कहां है कूडलसंगमदेव । . (२१२) तन देकर वह शून्य हो गया । मन देकर वह शून्य हो गया । धन देकर वह शून्य हो गया। यह तीनों कूडलसंगैयमें अर्पण करने से बसवण्णको शुन्यसमाधि प्राप्त हो गयी। ट्रिप्पणी :- शून्य समाधि=निर्विकल्प समाधि । विवेचन-तन मन धनसे संतप्त साधक उपरत होकर परमात्माकी शरण जाता है। अपना सर्वस्व उसके चरणों में अपित करके शरणागति स्वीकार करता है । मेरा सबकुछ भला, दुरा, पाप, पुण्य, हित, अहित तेरा है, मैं भी
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy