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________________ साधना-मार्गः सर्वार्पिरण २२५ कूडलसंगमदेव देख, सुन स्थावरको कालिख लगती है जंगमको वह नहीं लगती । (२१९) मेरे चरण ही नींव के पत्थर हैं, पैर ही खम्भे हैं, बाहु नागवेदी और अस्थियां शहतीर हैं, होंठ किवाड़ भोर मुख उस मंदिरका महाद्वार है । गुरुकरुणा लिंग बनी और मेरा अंग उसका पीठ । मेरा हृदयकमल उसकी पूजाका सुमन है, कान कीर्तिमुख, मेरी वाणी उसकी पूजाकी घंटी है और मस्तक स्वर्णकलश, मेरी आंखें कभी न बुझनेवाले नंदादीप हैं और चर्म ही निर्मल वस्त्र । मेरा स्मरण ही तेरा नैवेद्य है गुरुपुरदमल्लैय यह सब तेरा होकर । टिप्पणीः - परमात्मार्पण किए हुए भक्तके हृदय मंडपमें परमात्माका अधिष्ठान होता है । उसका पंचभौतिक शरीर ही पवित्र मंदिर बन जाता है । इस प्रकारके मंदिरको बांधने के लिए धन-संपत्तिकी श्रावश्यकता नहीं होती । उसके लिए भावसंपत्ति चाहिए। नश्वर स्थावर मंदिरसे यह अच्छा है । इस बातको ऊपरके वचनोंमें कहा है । ( २२० ) अपने मनको तुझमें डुबोकरके न निकाल सकनेका श्राश्चर्य देखा । न इह जानता हूँ न पर । परमानंदमें डूबा हुआ हूँ । उस "पर" का स्मरण ही स्मरण है । परम सुखमें सुखी हूं हे श्रप्रतिमकूडल चन्नसंगया मेरे श्राश्चर्यका रहस्य तू ही जानता है । , (२२९) अंगलिंग में शांत, मनज्ञानमें शांत भाव श्रभाव में शांत, कामनाएं, शांति में डूबकर शांत कर सकनेवाला ही सच्चा शरण है गुहेश्वरा । .(२२२) अरे ! तेरे शरण परमसुखी हैं रे! तेरे शरण काय- रूपी कर्म का अतिक्रमण किए हुए निष्कर्मी हैं । तेरे शररण मनमें निर्लेप ज्ञानी हैं कूडल - संगमदेव तेरे शरणों की महिमा न गा सकनेसे उन्हें केवल 'नमोनमः नमोनमः कहकर शतशत प्रणाम करता रहता है प्रभो ! (२२३) तेरे शरणों की स्थिति जाननेवाला इस त्रिभुवनमें कोई नहीं है देख । श्रघटित घटना करनेवाले महामहिम हैं वे । निजैक्य में निर्लेपभाव है वे, उनकी महिमा अखंड है कूडलसंगमदेवा मैं कैसे जान सकता हूँ तेरे शरणोंकी महिमा ? (२२४) तुम्हारे शरणोंने भूमिपर पैर रखे तो भूमि पावन है, तुम्हारे शरणोंके रहनेका स्थानही कैलास, तुम्हारे शरणोंके रहनेका स्थान ही तुम्हारा मंदिर है चन्नमल्लिकार्जुना तुम्हारे शररण बसवण्णके रहनेका स्थान अविमुक्ति क्षेत्र है । मैं उस बसवण्ण के चरणों में शत-शत प्रणाम करती हूं ! टिप्पणी - बसवण्ण = श्री बसवेश्वर । श्रविमुक्ति एक शैव तीर्थका नाम है |
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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