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________________ मुक्ति ही मानव जीवनका उद्देश्य है. १६१ टिप्पणी:- सहज समाधिका अर्थ है सब प्रकारके प्राप्त कर्म करते हुए 'चित्तको परमात्मामें लीन रखना । (८७) हमारे लिए मृत्यु नहीं है, मृत्यु क्या है यह हम जानते भी नहीं । 'जिसे मृत्यु कहा जाता है वह मृत्यु नहीं है । अंगोंमें उदय हुए लिंगैक्यको सिवा उस लिंगमें विलीन होने के दूसरा स्थान ही कहाँ है ? कूडल संगमदेवकी शरण जानेके वाद लिंगके (सत्यके) हृदयमें प्रवेश करनेके पहले शान्त होनेवालोंको मैंने नहीं देखा । (८८) प्राचारोंमें डूवकर तू जीवन मुक्त है । अन्तरंगमें सब प्रकारके ज्ञान का भान होने पर भी तू जीवन-मुक्त है । समर्पित शान्तिमें विलीन होकर रहनेसे तू जीवन-मुक्त है । 'मैं मुक्त नहीं हूँ" ऐसी उपचारकी भाषा रहने दो । शून्य भ्रम दूर करके, संसारकी पोशाकको फाड़कर फेंकनेकी वात अपना गुहेश्वर जानता है । तू अपनी बात मुझसे छिपाएगा संग बसवण्णा । टिप्पणीः- अल्लमप्रभु एक महान वचनकार थे। दूसरे एक वचनकार संगवसवण्णाने जब कहा, "मैं मुक्त नहीं हूँ" तव अल्लम प्रभुने ऊपरका वचन कहा। विवेचन-मुक्ति मनुष्य की अथवा चित्तकी एक विशेष स्थिति है, कोई स्थान नहीं। स्वाश्रित, निरालंव, आनन्द-स्थिति, अथवा निर्मल निज-सुखानुभूति ही मुक्ति है। सचमुच ऐसी स्थिति रही तो और दूसरी मुक्ति ढूंढने की क्या आवश्यकता ? ऐसे आनंदका अल्पांश भी मुक्तिके ग्रानंद-सा ही है । ध्यान-समाधि, भाव-समाधि, कर्म समाधि, आदि समाधियाँ मनुष्यकी वृत्तियाँ हैं । वृत्ति क्षणिक होती है और स्थिति जीवनका स्वभाव । वृत्तियाँ उस स्थितिकी ओर इंगित करती हैं जो मुक्तिके आनंदका प्रतीक हैं। इस अध्यायमें आए हुए वचन मुक्ति के अनेक प्रकारका विवेचन करनेवाले हैं । जव एक बार मुक्त-स्थितिका परिचय देनेवाली वृत्तियां जागृत होती हैं, उनका अनुभव होने लगता है तव साधक उन वृत्तियों को स्थिति रूप वनानेके लिये तीव्रतम साधना करने लगता है क्योंकि उस आनंदसे वह बड़ा प्रभावित हुआ रहता है । प्राप्त दृत्तिके क्षणिक आनंदको स्थायी बनालेने की तीन व्याकुलता उत्पन्न होती है, जिससे प्रेरित होकर साधक अपनी साधनाको तीव्रतम करनेका प्रयास करता है । वचन--(८६) जहां देखू तू ही तू है मेरे स्वामी ! जहाँ स्पर्श करता हूँ तू ही तू है मेरे नाथ ! जहाँ भावना करता हूँ तू ही तू है रे ! सर्वत्र तेरे ही प्रकाशसे आच्छादित हुआ है जिससे अव "मैं" और "तू' का भेद ही नहीं रहा अखंडेश्वरा। (१०) सब कुछ त्याग करके चाहे जब कैलास जाऊंगा कहते हो ! तो
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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