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________________ १६२ वचन साहित्य - परिचय क्या कैलास दैनिक पारिश्रमिक है ? न पीछेका भाव न आगेका विचार, अव-सर आते ही शरणप्रिय अमलेश्वलिंग जहाँ है वहीं कैलास है । टिप्पणीः- किसी कर्मके फलस्वरूप मुक्ति नहीं मिलती । उसके लिये सतत साधना की आवश्यकता होती है । (१) क्षुधा, पिपासा, शोक, मोह, मद, मत्सर, आदि षड्वर्ग के बिना रह सकता है, नाsहं, सोऽम् कोऽहम इन भावोंसे रहित होकर रह सकता है, प्रष्टः faara aौर षोडशोपचारके विना रह सकता है, जिस तरह कपूर, अग्नि संयोगसे मिटकर अग्नि बन जाता है उसी प्रकार लिंगका स्मरण करते-करते अब वह अपने आप लिंगरूप ही वन गया है निज लिंगक्यको भावना करते ही महालिंग गुरु सिद्धेश्वर प्रभु । ( २ ) न अंतरंग में कोई भाव दीखता है और न बहिरंग में ! इन द्वंद्वों को खोकर अपने आपमें सहज बन गया है देख ! न अंतरंग है न बहिरंग, केवल एक रंगमें देख कूडल संगमदेव अपने शरण आए हुएको । (६३) "मैं" "मैं" रूपी अहंकार खोकर स्वयं ज्ञानानंद होनेके बाद, अपनेसे अन्य कोई एक है, ऐसा न देखने को है न सुननेको, न जानने को भी कुछ है | अनादि, अविद्यामूल चराचर मायाजाल समाप्त हो गया था । श्रव और क्या कहना - करना रहता है निजैक्य-को ? विषय-विषयी नामके भाव लुप्त होकर द्वंद्व भाव मिट जाने से निज गुरु स्वतंत्र सिद्धेश्वर ही अपने आप स्वतंत्र हो गया । टिप्पणी - यह कैवल्यकी अद्वैत स्थितिका वर्णन है । दूसरा कुछ भी न होनेसे विषय ज्ञान किसको कहते हैं यह कहने के लिये भी कोई स्थान नहीं रहा है । (६४) शरणों के सात्विक वचन झूठ हैं क्या ? नहीं नहीं वह सत्य हैं । सत्य हैं वह | अंतरंग ही देवलोक है और वहिरंग ही मृत्युलोक । इन दोनों लोकोंसे परे जब हम रहते हैं तव इन दोनों लोकोंमें आप ही रहें गुहेश्वरा । टिप्पणीः - एक वार बसवेश्वर के घर पर प्राये शैव संन्यासी प्रसाद ग्रहण अर्थात् भोजन करनेके लिये बैठे थे । बसवेश्वर और अल्लम प्रभुको वहाँ आने में कुछ विलंब हुआ जिससे ग्रन्य शैव संन्यासियोंको क्रोध प्राया । उन्होंने क्रोधसे कहा "इन्हें इह-पर दोनों नहीं मिलेगा !" तब अल्लमप्रभुने इसी वचनसे बसवेश्वरको शांत किया । यह आत्मस्थिति है, द्वंद्वातीत स्थिति है । विवेचन - श्रव स्वर्गसुख और मुक्तिसुखका विभाजन करके दिखाने वाले कुछ वचन देखें | स्वप्नानंद में और निद्रानंद में जितना अंतर है उतना ही अंतर स्वर्ग सुख में और मुक्ति-सुखमें है ऐसा कह सकते हैं । स्वर्ग सुख एक प्रकारका सूक्ष्म विपय-सुख ही है, इससे अधिक कुछ भी नहीं । वह सत्कर्म करने पर प्राप्त होता है । किंतु मुक्ति-सुख केवल ज्ञान-निष्ठासे प्राप्त होता है । स्वर्ग-सुख
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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