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________________ १६० वचन-साहित्य-परिचय आया वह शरीर ? मनके तुझसे प्रालिंगित होकर घन होनेके अनंतर पुनः कहाँसे आएगा वह मन ? प्राण तुझसे मिलकर महाप्राणके चरणों में समरस होनेपर भला वह प्राण कहाँसे पाएगा? इस प्रकार यह तीनों लिंगमें निर्लेप होकर मनकी आँखोंसे भी प्रोझल होकर रहेंगे यह वात कूडल संगैय ही जानता है । (८१) अनन्त साधनोंका अभ्यासकर गुरु अपने शिष्योंको सिखाना छोड़ कर क्या स्वयं सीखने लग सकता है ? अखंड परिपूर्ण ब्रह्मसे मिलकर शून्य वना हा शिवशरण अनेक सत्कार्य करने परभी वह लोकोपचार, लोक शिक्षा तथा लोक-हितके लिये ही करेगा न कि उसका फल पाने के लिये । यही कारण है कि शिव-शरण कितने ही कर्म करनेपर भी घृतलिप्त जिव्हाकी तरह सदैव 'निर्लेप होकर रहता है अखंडेश्वरा । टिप्पणी:-जीवन-मुक्त जो कर्म करता है वह सब लोक-हित और लोकशिक्षाके लिये करता है। उसको किसी प्रकारके फलकी अपेक्षा नहीं होती। वह सम्पूर्णतया निष्काम कर्म करता है । निरपेक्ष रहता है इसलिये निलिप्त भी होता है। (८२) बिना किसी संगका निजैक्य संसारमें रहकर भी बद्ध नहीं है । भटककर भी दोपी नहीं है, चाहिए, नहीं चाहिये, हाँ या ना इत्यादि भावसे “परे होकर अग्नि-शिखासे प्रालिंगित कपूर-पर्वतकी तरह मिट करके रहना है वह चन्न संगैयमें लिंगक्य । (५३) भ्रमिष्ट होने पर भी भ्रमित मनके व्यवहार रहें ऐसा शिव-पथ मैं नहीं जानता; नहीं जानता; गुहेश्वरको जाननेके वाद लोक व्यवहारकी गति मैं नहीं जानता, नहीं जानता! टिप्पणी:-जव चित्त अन्य विषयों में रहता है तब वह भगवानको भूलता है और जव समाधि स्थितिमें परमात्मैक्य होता है तब विश्वको भूल जाता है । यह विश्व ही परमात्मरूप है इसका अनुभव होकर व्यवहार करनेसे सहजसमाधि अर्थात् समरसैक्य सिद्ध होता है। (८४) मरकर पैदा होते हुए ध्वस्त होनेवाले सव देव-लोकको जाते हैं यह भाषा सुनी नहीं जाती। मरनेके पहले अपने आपको जान लोगे तो परमात्मा प्रीति करेगा गुहेश्वरा । (८५) मरनेके अनन्तर मुक्ति मिलेगी इस प्राशासे भगवानको पूजोगे तो 'भला वह कब क्या देगा ? मरनेके पहले उसके लिये व्याकुल रहो तो स्वतंत्र होकर, समरसैक्यको प्राप्त करोगे और उससे अभिन्न होकर रहोगे गुहेश्वरा । (८६), टाटके कपड़ों और कंदमूलाहारके कुटिल तंत्रके कपट-योगको बंद करो वावा ! शरीर-समाधि, इंद्रिय साधनोंकी समाधि, और जीव-समाधि, यह योग नहीं है रे ! केवल सत्य-समाधि ही सहज समाधि है गुहेश्वरा ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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