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________________ मुक्ति ही मानव जीवनका उद्देश्य है १८७ अनासक्तको भाव ही नहीं। भाव न होनेसे ज्ञान भी नहीं । ज्ञान न होनेसे सण्णवसवण्णप्रिय लिंग भी नहीं, नहीं ठहरो !! टिप्पणी:- यहाँ केवल ऐक्य स्थितिका वर्णन है। (६४) अरे रे प्यारे !! तुमसे मिलने के पहले कुछ भी नहीं दीखा; मिलनेके बाद और भी नहीं दीख पाया । मिलनेके सुखमें मैं, तुम, सब कुछ भूल गया कपिलसिद्धमल्लिनाथैया । (६५) प्रियतमसे मिलनेके उत्साहमें यही नहीं समझ पाया कि मेरे सामने क्या है । प्रीतमसे मिलते समयभी अपने प्रीतमको तनिक भी नहीं जान सका। न अपनेको जान सका न उसको उरिलिंगदेव । (६६) उसके मिलनका, उसमें डूब जानेका अानंद क्या कहूँ मेरी माँ ! वह न पूछना चाहिए, न कहना चाहिये, न सुनना चाहिये; तब क्या कहूँ, कैसे कहूँ मेरी माँ ! ऐसा हुअा मानो ज्वालामें कपूर मिला दिया । महालिंगगजेश्वरके मिलनकी बात नहीं करनी चाहिए । टिप्पणीः-सती-पतिके संगैक्यको प्रात्क्मैयसे तुलना करके यह वचन कहा गया है । मिलनमें कोई द्वतभाव नहीं होता। वह स्थिति अवर्णनीय है । (६७) वृत्ति रहित चित्तको देखकर, धन-मन देखकर, उसे शब्दोंके सांचे में ढालकर दिखाया जाय तो वह छोटा हो जाएगा। वह सब न होनेका ही निःसंग है गुहेश्वरा। टिप्पणी:--वह अनुभव शब्दोंसे व्यक्त करना असंभव है। जब उसे शब्दोंमें व्यक्त करनेका प्रयास किया जाता है उस में न्यूनता आ जाती है । (६८) अंतरंग, बहिरंग, आत्मरंग, एक ही है देख ! पारुड़का कूडलसंगमदेव स्वयं जानता है । (६६) स्नेहके सुखको दर्शन के सुखने निगला था। उस दर्शनके सुखको मिलन सुखने निगल लिया, उस मिलन सुखको आलिंगन सुखने निगला तो आलिंगन सुखको संग सुखने निगला, उस संग सुखको समरस सुखने निगला तो समरस सुखको परवश सुखने निगला ! वह परवश सुख कूडलसंगमदेव ही जानता है। टिप्पणीः-समरस सुख=विलय सुख । (७०) निर्मूल हुअा, अहा ! निरालंव भी हुआ । निरालंब होकर शांत भी हुा । और पुष्पका फल दिखाकर शून्यसे मिला, शून्य निःशून्य हुअा था तब, शून्य निःशून्यमें विलीन होकर प्रात्मसुख प्राप्त किया है मैंने संगय्यमें निःशून्य होकर । (७१) पड्चन-वलयमें "मैं" खेलता है, बहुरूप भ्रूमव्य मंडल, हृदय-कमल
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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