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________________ १८६ वचन साहित्य परिचय प्रकार परशिव, निरव शून्य मूर्तिका संग वसवण्णकी चिद्रूप रुचि तृप्तिमें शुद्ध-सिद्ध प्रसिद्ध होकर, सदाकी भांति गुहेश्वर लिंग प्रभु नामके उभय नाम मिटा करके, सच्चिदानंद, नित्य परिपूर्ण अविरल, परशिव निरवय शून्य मूर्ति संग वणी चिद्रूप रुचि तृप्तिका, पादोदक प्रसाद होगा । बिना हुए रहेगा क्या चन्न बसवण्णा ? टिप्पणीः - शुद्ध सिद्ध प्रसिद्ध प्रसाद = इन्द्रिय, विषय और उसके साधनों के सामान्य स्वाभाविक गुण दुर्वर्तनोंसे युक्त होते हैं । यह सब दोष निकाल देने से उन साधनों द्वारा होनेवाला सेवन तथा भोग प्रसाद सेवन अथवा यज्ञमय हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में वह प्रसाद शुद्ध, सिद्ध, प्रसिद्ध कहलाएगा । इस विषय में और अधिक अध्ययन करनेकी इच्छा हो तो : "संग वसवेश्वरन वचन" इस पुस्तकको देखना चाहिये । इस वचनका प्राशय " मुक्ति ऐक्य रूपकी है और योग्य मार्गका अवलंब किया गया तो वह प्राप्त होकर रहेगी" ऐसा किया जाता है । (६०) सब इंद्रियों में विकार उत्पन्न करनेवाले मनको खींच करके जो रहेगा वही सुख पायेगा । पंचेंद्रियोंकी कामनाओं में उसे डुबाकर जो रहेगा वह दुःख पायेगा । वहिर्मुख हुआ कि तारा माया प्रपंच है और अंतर्मुख हुआ कि महान ज्ञान है और जो मनको आत्मामें ही स्थित करेगा वही मुक्त होगा । मनोलय होने से सोमेश्वर लिंग में अभिन्न होगा । टिप्पणीः- ग्रात्मा में ही चित्त निरोध तथा चित्तका लय करना परम सुखी,. ज्ञानी, तथा मुक्त पुरुषका लक्षण है । (६१) पश्चिम गिरिपर चित्सूर्यका उदय होता हुआ देखा । चारों चोरका अंधकार चारों ग्रोरसे मिटता हुआ देखा, दसों दिशाओं में प्रकाशके पुंजके पुंज भरे हुए देखे, सिकुड़े हुए सारे कमल पुष्पों को खिलकर कभी न मिटने वाली सुगंध महकाते देखा । इस प्रकारका यह कौशल देखकर चकित हुआ श्रखंडेश्वरा । टिप्पणीः- पश्चिम गिरिका चित्सूर्य = चित्शक्तिका ज्ञान । सिकुड़े हुए कमल = योग ग्रन्थों में वर्णित मूलाधार चक्र आदि । (६२) प्रकाश में दीखनेवाला वह प्रकाश एक महाप्रकाश था । प्रसाद में प्राप्त प्रसादिके परिणाम के परमानंदको कैसे वर्णन करूँ ? कहाँ ढूंढ़ें उसकी उपमा ? परमाश्रय ही अपने आप कूडलसंगमदेव वना । चन्न वरवण्ण रूपी महा प्रसादि ! जो मेरे वाङ्मनसे अगोचर रहा उसकी उपमा मैं कहाँसे ला दूँ ? टिप्पणी - महाप्रकाश - दिव्यज्ञानका प्रकाश | (६३) वाङ्मनसे अगोचर उस अप्रतिम लिंगसे मिलकर अचलानंदमें मग्न
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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