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________________ १८८ वचन-साहित्य-परिचय मध्यके अन्जस्वर मणिपूरकपर "मैं" खेलता है, अनेक रंग रूपमें जलनेवाली ज्वालाओं में कपूर बनकर "मैं" खेलता है, वहुरूप एक हो करके वसवण्ण प्रिय होकर। टिप्पणी-पड्चक=मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धि, और आज्ञा नामके, ज्ञान-तंतुओंके छः केन्द्र । उन्हें नाडिचक्र भी कहते हैं। अब्ज स्वर=अनाहत ध्वनि, बह ध्वनि शरीरमें अपने आप होती है । "मैं" का अर्थ जीवात्मा अथवा आत्मा । सव बातोंसे अलिप्त रह कर आत्मा शरीरमें संचार करती है यह इस वचन में कहा गया है । (७२) श्राप सुखी होने पर न चलने की आवश्यकता है न बोलने की तथा न पूजा-अर्चा करनेकी अावश्यकता है न खाने पीनेकी आवश्यकता है रे गुहेश्वरा। टिप्पणी:-आत्म-तृप्ति होनेपर अथवा मनुष्य के एक वार प्रात्मकाम हो जानेपर सुख-प्राप्तिकी दौड़-धूप समाप्त हो जाती है । "आवश्यकता" रूपी भावका अतिक्रमण करके वह लीला-विहारी हो जाता है । विवेचन-इस अध्यायके प्रारंभमें मुक्तिके प्रकारोंका विवेचन किया गया है । अव विदेह मुक्तिसे सम्बन्धित वचन पाते हैं । उपनिषद् कालसे जन्ममरण रहित मुक्ति ही मानव-जीवनका आत्यंतिक ध्येय माना जाता रहा है। यह भारतीय विचारकोंकी परंपरागत धारणा है । वचनकारोंने भी इसको स्वीकार किया है। (७३) जनमने वाला मैं नहीं, प्राप्त करने वाला भी मैं नहीं, क्या कहता है ? यह कैसे होता है ? सत्यको जाननेके बाद भला कैसा जनम और कैसी प्राप्ति गहेश्वरा। (७४) सत्य ज्ञानके वाद चितन नहीं, मृत्यु विजयकी महानतामें, सत्यदर्शनकी महामहिमामें, परात्परमें विलीन होनेके परिणाममें, शून्यमें विलीन होनेकी पूर्णतामें गुहेश्वर सहन रूपसे लिंगमें प्रवेश करके स्थिर हो गया। - (७५) मनके अतिम नोकके अग्रबिंदुके उसपार स्मृत-स्मरणसे जनममरणका चक्र रोक करके उदय होनेवाले ज्ञान-ज्योतिके करोड़ों सूर्योके अंतिम छोरका अतिक्रमण कर, स्वानुभवोदयके ज्ञानशून्यतामें छिपे शून्यको क्या कहूँ गुहेश्वरा। ___(७६) पुराने संचित कर्म मिट गये थे। अव तेरी कृपासे मेरा पुनः जन्म नहीं है, तू ही जानता है अपने बच्चे को कूडलसंगमदेव । (७७) अागमें जलनेवाले कपूरकी राख होती है क्या रे ? दूर . शून्यमें दिखाई देनेवाले मृग-जलमें भी कहीं कीचड़ होता है ? वायुमें विलीन सुगंधका
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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