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________________ मुक्ति ही मानव जीवनका उद्देश्य है विवेचन-सत्य ही स्वभावसे सृष्टि वना, अथवा परमात्माने अपनी संकल्प शक्तिसे इस सृष्टिका सृजन किया। दोनों एक है । इस सृष्टिमें सेंद्रिय और निरिद्रिय ऐसे दो प्रकार हैं । अग्नि, आकाश, वायु, जल, मिट्टी, लोहा आदि सव निरिद्रिय हैं; क्योंकि उनकी कोई इंद्रिय नहीं है, और उनमें इंद्रियसे होनेवाली अनुभूति अथवा संवेदना भी नहीं है। झाड़, झंखाड़, वृक्ष-लता, कृमि-कीट, पशु-पक्षी, नर-वानर आदि सब सेंद्रिय हैं। इन सबकी एक या उससे अधिक इंद्रियां होती हैं, तथा इंद्रिय जन्य अनुभूति अथवा संवेदना भी होती हैं । निरिद्रिय वस्तुप्रोंका चलन-वलन नहीं होता, गतिशीलता उनमें नहीं होती। चैतन्य तथा चैतन्य-जन्य अनुभूति नहीं होती। इसलिए उनमें अहंकार भी नहीं होता और अहंकार न होनेसे स्पष्ट व्यक्तित्व भी नहीं होता। सेंद्रिय सप्टि में मनुष्य प्राणी ही सबसे अधिक विकसित होता है। उसका चैतन्य उच्च कोटिका है । वह विकासको सर्वोच्च सीमाको पहुँचा है । इसलिये उसमें अनंत अनुभूति अथवा संवेदनशीलता है। उसके जानके साधन अन्य सभी प्राणियोंसे अधिक तीक्ष्ण हैं। उनके द्वारा मनुष्योंमें मैं, तू, भला-बुरा, सुख-दुःस आदि भावोंकी वृद्धि होती है साथ ही साथ विवेक शक्तिका भी असीम विकास होता है । और सब प्राणी बिना आगे-पीछेका विचार किये जो देखते हैं तो करते है किंतु मनुष्य ऐसा नहीं करता । वह भूत और भविष्यका विचार करके वर्तमानमें अपने हित सावनेकी दृष्टि से कोई काम करता है । यही मनुष्य जातिकी विशेषता है। इस प्रकारकी मनुष्य जातिमें जो अधिक उच्च हैं, अधिक विकसित हैं, वह इंद्रियजन्य क्षणिक सुखके पीछे नहीं पड़ते किंतु शाश्वत सुखकी खोज करते हैं, निरालंब अयवा स्वाथित सुख की खोज करते हैं। उसको पानेकी साधना करते हैं । वह सोचते हैं कि जब तक शरीर है तब तक शरीर जन्य सुख-दुःख हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगे। जन्म-मरण लगा रहेगा । इसलिये वे पुनः यह शरीर नहीं मिले, जन्म-मरणके चक्रमेंसे छूट जाय इस प्रयत्नमें लगते हैं । इस प्रयत्नमें वे इच्छायोंका त्याग करने लगते हैं। क्योंकि इन इच्छाओं अथवा कामनारोंसे कर्म, कर्मले जन्म, जन्मसे मरण, सुख-दुःख आदि द्वंद्व परंपरा चलती जायगी । अर्थात् इसकी जड़ ही काटनी चाहिए । इसकी जड़ मनुष्यको
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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