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________________ मुक्ति ही मानव जीवनका उद्देश्य है १८३ इच्छाओं में है, कामनाओं में है । इन कामनारोंको ही नष्ट करना चाहिये । तभी हम मुक्त हो सकते हैं। ___मुक्तिका अर्थ है नित्यानंद स्थिति । नित्य आनंदका अनुभव अर्थात् आनंदित शांत स्थिति । वह किसी प्रकारके बाहरी साधनोंपर अथवा बाह्य परिस्थिति पर निर्भर नहीं है। निरालंव है, अर्थात् किसी बाह्य पालंबनसे रहित है। अपने मेंसे अपने में सतत प्रवाहित होनेवाला निर्दोष निर्मल अानंदस्रोत ही मुक्तिका शाश्वत सुख है। वाह्य विषय-सुखकी तुलनामें वह सुख निर्दोष है, नित्य है, निरालंव है, स्वतंत्र है तथा अनुपम होता है। मुक्ति में भी दो प्रकार होते हैं। सदेह मुक्ति अथवा जीवन्मुक्ति, तथा विदेह मुक्ति अथवा जनन-मरण रहित मुक्ति। शरीर रहते हुए ऊपर वर्णनकी हुई स्थितिका अनुभव करना ही जीवन्मुक्ति है और शरीर त्यागके बाद पुनः जन्म धारण न करनेवाली स्थितिको विदेह मुक्ति अथवा जनन-मरण मुक्ति कहते हैं। जीवन-मुक्ति महान है । विना इसके विदेह मुक्ति असंभव है । जीवन-मुक्त मनुष्य मृत्युके बाद सहज ही विदेह मुक्ति प्राप्त कर सकता है । इसीलिये साधकको जीवन-मुक्तिकी साधना करनी चाहिये । इस जीवन-मुक्तिका आनंद दो प्रकारका होता है। ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियोंको निश्चल करके, चित्तको एकाग्र करते हुए ध्यान अथवा भावसामर्थ्य से उसे शांतकर साधक निरतिशय आनंद प्राप्त कर सकता है। वह उसी समय तककी मुक्तावस्था है । क्षणिक है। यह एक प्रकार है। दूसरा प्रकार यह है कि सभी सत्य-मय है, सभी परमात्म-रूप है, मैं कर्ता नहीं, केवल निमित्तमात्र हूँ, इस भावसे सदा-सर्वदा निष्काम-कर्मसमाधिमें, सतत आनंद प्राप्त करते रहना । इसी स्थितिमें शरीर कर्मगत होता है किंतु चित्त आत्मानंद-रत रहता है। यही समरस आनंद है । विदेहमुक्तिका अानंद भी दो प्रकार का होता है । मृत्युके बाद पुनः जन्म न लेकरके चिदंशके व्यक्तित्वको न खोते हुए सदैव आनंदमग्न रहना एक प्रकार है ; यह द्वैत-भावकी विदेह मुक्ति है । और मृत्युके बाद अपना व्यक्तित्व पूर्ण रूपसे मिटाकर परमात्माके आनंदमें विलीन होते हुए अद्वैत भावसे परमात्माके श्रानंदमें मग्न होना । इसको अद्वैतभावकी मुक्ति कहते हैं । उपरोक्त आनंको प्राप्त करनेके लिये मनुष्यकी सव संकुचित वृत्तियाँ नष्ट होनी चाहिए, तथा विश्वात्माका अनुभव-जन्य ज्ञान होना आवश्यक है । इसलिए वचनकारोंने ऐक्यकी भाषामें इसका वर्णन किया है। परंपरा भी यही रही है। मुक्तिमें सारूप्य मुक्ति अर्थात् संपूर्ण रूपसे परमात्मामें विलीन होकर परमात्म-रूप बननेकी मुक्ति सर्वश्रेष्ठ है। अनंत चित्सागरमेंसे अलग
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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