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________________ १६० वचन साहित्य - परिचय 1 परमावधि है । वे पूछते हैं, "विल्ली का रास्ता रोकना और तुम्हारे कार्य में क्या सगाई है ?' वे दूसरोंके धनकी इच्छा, परस्त्रीकी कामना, निंदा, चोरी, विश्वासघीत, असत्य वचन, भिक्षावृत्ति, आलस्य, मांसाशन, मद्यपान श्रादिके विरुद्ध मानों नंगी तलवार हाथ में लेकर घूमते हैं । वे पुनः पुनः यह कहते हुए नहीं थकते कि मनुष्यों को अत्यंत निर्दयता के साथ अपने दुराचार तथा अपनी दुर्बलतानों को कुचल देना चाहिए। वे केवल उपदेश देकर ही चुप नहीं होते । उनकी यह भी मान्यता है कि व्यक्ति समाजका एक घटक है । समाज सुधारके प्रभावमें व्यक्तिका सुधारना आसान नहीं है । इसलिए समाजमें साम्य, स्वातंत्र्य, धर्म, Patra, कायक, अपरिग्रह, गुणग्राहकता ग्रादिकी नींव पर उन्होंने नई समाज - रचनाका भी प्रयत्न किया । कपट, ईर्ष्या, आपसकी प्रतियोगिता आदि सामूहिक जीवन - विकास के लिए विपप्राय है । इससे उच्च-नीच भाव, दुरभिमान, सहकार, संघर्ष आदि बढ़ते हैं। इसलिए उन्होंने इसकी जड़ में जो धर्म-भेद, वर्ण-भेद, जाति-भेद, लिंगभेद श्रादि है उसके विरुद्ध विद्रोह किया । उन्होंने जन्मगत श्रेष्ठता के स्थान पर कर्मगत अथवा गुणगत श्रेष्टताको स्वीकार किया। लोगोंको सत्कर्म-प्रवृत्त किया । सद्गुणोंकी पूजासे समाज में गुरण विकासकी साधना चलायी । "स्त्रियों को पूजाका अधिकार नहीं" "मंत्रका अधिकार नहीं" आदि इन परम्परागत रूढ़ियों के विरुद्ध "स्त्री जगदंबा है" "वह महादेवी है" "वह लोकमाता है" यदि घोषणात्रोंसे नये भाव भर दिये । स्त्रियोंको "धर्म-माता" "धर्म भगिनी" आदिके रूपमें समाज में समान और सम्मानका स्थान दिलाया । वचनकारों की दृष्टि में शिव-पथ पर कोई भेद-भाव नहीं । लिंग भेद नहीं, जातिभेद नहीं, वर्ण-भेद नहीं, कर्म-भेद नहीं । उन्होंने कहा, हम सब एक ही परशिवकी संतान हैं इसलिए भाई-भाई हैं । श्राइये ! बड़े, छोटे, स्त्री, पुरुष, ब्राह्मण, चांडाल गोपाल, भूपाल, पंडित, पामर, ज्ञानी, अज्ञानी, विज्ञानी, तत्वज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी, सैनिक, सेनापति, कलाकार, साहित्यिक, शिक्षक, भिक्षुक, साधु, सन्यासी सभी आइये ! हम सब एक ही परमात्माके वंशज हैं, श्रमृत पुत्र हैं, हम अपने सब क्षुद्र मतभेदोंको भूल जाएँ ! उच्च-नीच भावको भूल जाएं, शासक और शासित भेदको भूल जाएं ! शोषक और शोषित भेद को भूल जाएं ! अहंकार, दुरभिमान रागद्वेप श्रादिको भूल जाएं ! परमात्माने मानव मात्रको जो यह भिन्न-भिन्न शक्तियाँ दी हैं वह सब परमात्माके इस विश्व संगीत में साथ देनेवाले वाद्य-वृंद हैं । ग्राइये ! हम सब अपने-अपने वाद्योंको श्रावश्यकतानुसार कसकर, ढीला -कर, ठोक-पीटकर, संस्कृत करें, शुद्ध करें, जिससे विश्वात्मा के विश्व संगीत में - कोई वेसुरापन न आये ! उसके साथ एक तानता हो, एक स्वर हो, वह विश्वसंगीत दिव्य हो, भव्य हो, पवित्र हो, पावन हो, जिससे उस संगीत-माधुरी में तल्लीन
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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