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________________ उपसंहार १५६ε विश्व में विश्वव्यापीको देखते हुए 'ईशावस्यमिदं सर्वं यत् किंचित् जगत्यां जगत्" भावनासे जीवन-यापन किया । भुक्ति-मुक्ति में सामरस्य निर्माण किया । उन्होंने न भोगको प्राधान्य दिया न भोगका तिरस्कार किया । न उन्होंने प्रवृत्तिका तिरस्कार किया न निवृत्तिको स्वीकार किया । उन्होंने निवृत्तिको सब कुछ मानकर निवृत्ति के प्रचारकी महानतम प्रवृत्ति नहीं की । उन्होंने निवृत्याभिमुख प्रवृत्ति सिखाई और प्रवृत्तिकी प्रविरोधी निवृत्ति | उन्होंने अपने साथियों को समझाया कि विश्वका प्रत्येक कार्य परमात्मा के संकल्पसे होता है, हम सब उसकी संकल्प - पूर्ति के साधनमात्र हैं । इस प्रकार सामूहिक रूपसे निरहंकार, निराभार जीवनका पाठ पढ़ाया । वस्तुतः परमात्मा द्वारा निर्मित इस विश्व में अपने पास जो कुछ है वह सव कुछ अन्य मानव बन्धुनोंकी सेवामें नम्र भावसे समर्पण करके निराभार होकर जीनेसे बढ़कर और कोई परमार्थ है नहीं । अनन्य भावसे अपनी सभी शक्तियों का समुचित विकास करते-करते, उन विकसित शक्तियों को परमात्मा कार्यमें समर्पित कर उनका शुद्धीकरण करते-करते, संसारके सभी मानवोंको अपना वन्धु मानकर नम्रतासे उनकी सेवा करने से मानव के मनपर बैठा हुया 'मैं' - रूपी ग्रहंता और 'मेरा' - रूपी ममताका भूत भाग जाएगा । जैसे-जैसे अहंता और ममता से भरा हुआ यह जीवन कलश रीता होता जाएगा परमात्माकी कृपासे वह भरता जाएगा । जैसे-जैसे परमात्माकी कृपा बढ़ती जाएगी उनके संकल्पका ज्ञान होता जाएगा । जैसे-जैसे साधक भगवान के संकल्पसे काम करता जाएगा अपना संकल्प गलता जाएगा । जव ' अपना' संकल्प ही नहीं रहा तब साधक परमात्मा में विलीन होकर समरसैक्यके शाश्वत सुख - साम्राज्यका सम्राट् बनेगा । वह स्वयं परमात्म-रूप हो जाएगा तव पूजक, पूज्य, पूजा इस त्रिपुटीका एकीकरण हो जायगा । इसीको मुक्ति कहते हैं । वचनकारोंका यही साधनामार्ग है । यही शिव शरणों का शरणमार्ग है। यही शिव-योगियोंका समन्वयजन्य पूर्णयोग है । यही उनकी परमात्मा-पूजा है, शिव पूजा है । इस शिव पूजा में भी वे सदैव दक्ष हैं कि कहीं इसका दंभ न हो, इससे दुराचार न फैले, इसमे कहीं दायित्वहीनताकी दुर्बलता न आए ! उन्होंने दिखावे के लिए, कीर्तिकी प्रशासे, अंहकारसे, अभिमान से 'कुछ भला काम करनेवालोंको ' फटकारा है । उन्होंने कहा है, "इससे साधक अधिकाधिक बंध जाएगा !" 'समाजमें दंभाचार बढ़ानेवाली पूजा, हवन, होम, भजन, नाम-संर्कीर्तन आदिके लिए उनके साधना-मार्ग में यत्किचित् भी स्थान नहीं है । उनकी दृष्टिसे शुद्ध नैतिक जीवन सबसे श्रेष्ठ साधना है । शुभाशुभ, सगुन, मुहूर्त, ज्योतिप, स्वप्न, ग्रादिकी वहाँ कोई पूछ नहीं । उनकी दृष्टि से यह सब मानसिक दुर्वलताकी
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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