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________________ १५८ . वचन-साहित्य-परिचय. परमात्मा मानकर उनकी सेवा करनेका आदेश दे रहे हैं ! वे मानव-मनको अधिक सुतीक्ष्ण कर, विचार-क्षम कर, उसमें स्मरणशक्ति, मननशक्ति, ग्रहणशक्ति, संवेदनाशक्ति आदिका समुचित विकास करते हुए सत्यासत्य, न्यायान्याय, विवेक आदिसे समाजकी बुराइयोंको मिटाकर समाजकी नवरचना करनेको प्रवृत्त करते हैं। वचनकारोंकी दृष्टि से यही अपने जीवनको परमात्मापरण करनेकी पूर्व तैयारी है। इसीसे साधक अपने जीवनको परामात्मार्पण करने योग्य होता है प्रथम कायापरण, फिर करणार्पण, प्राणार्पण, भावार्पण, और नात्मार्पण, यह परमात्मार्पणकी सीढ़ी है। संपूर्ण विकसित स्वस्थ सत्कार्य-प्रवृत्त शरीर कायार्पणसे शुद्ध होगा। वही बात मन, प्राण, भाव और आत्मार्पणकी है । सुतीक्ष्ण, स्मरण-शील, विचार-क्षम, प्रगल्भ मन ही ईश्वरापरण करने योग्य है, न कि मारा हुआ, कुचला हुआ, निर्बल मन ! सपुष्ट स्वस्थ शरीर, मन, प्राणा, भाव, आदि परमात्मार्पण करनेसे शुद्ध होते हैं। इससे चित्त-शद्धि होती है। प्रात्म-शुद्धि होती है। और शुद्ध आत्माको ही परमात्माका साक्षात्कार होता है । जैसे सधे हुए हाथीसे जंगली हाथी पकड़वाया जाता है वैसे ही परमात्मगुणोंसे युक्त आत्मासे ही परमात्माका साक्षात्कार होता है । आत्म-शुद्धिके लिए. सबसे पहले तन, मन, वचन, प्राण आदि शुद्ध, स्वस्थ, नि:काम, निष्पाप, करके फिर अात्मार्पण द्वारा परमात्म-प्राप्ति करनी होती है। वचनकारोंकां यह पूर्णार्पण साक्षात्कारकी पूर्व तैयारी है । वचनकारोंका साक्षात्कार कोई निर्विकल्प समाधिमें होने वाला क्षणिक साक्षात्कार नहीं है । उनका साक्षात्कार सतत-सर्वत्र परमात्म-रूप देखनेका साक्षात्कार है। इसमें संशय नहीं कि वे अन्तः चक्षुषों से सतत अपने मनकी नोकके छोरके उस पार रंग-रूप-रहित प्रतीक देखने में तल्लीन रहते थे, किन्तु बाह्य चर्म-चक्षुओं से सदैव और सर्वत्र उसीका प्रकाश देखते थे । उनकी दृष्टिसे विश्वमें ऐसा कोई कार्य नहीं होता था जिसमें उस मंगलमय परमात्माका हाथ न हो, ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ मंगलमय परमात्माका वास न हो, ऐसी कोई वस्तु नहीं जहाँ उनकी दृष्टि नहीं। इसलिए वह समग्न विश्वको शिव-स्वरूप देखते थे। तभी उनके मुखसे यह शब्द अनायास निकल पड़ते थे "मरण महा नवमि" "मरण ही महा नवमी है" । तभी वह निर्भय होकर स्पष्ट घोषणा कर सकते थे किः शिव-साधनामें ब्राह्मण और चांडाल एक समान हैं। उन्होंने कभी इस विश्वको अथवा विश्वके व्यापारको हेय नहीं माना । वे इसको मंगलमय परमात्माकी लीला मानते आये थे। उन्होंने इस विश्वके किसी भी व्यापारके लिए यह उच्च है, वह नीच है, यह हेय है वह श्रेय है ऐसी भाषाका उपयोग नहीं किया। उन्होंने सबको ईश्वरका प्रसाद माना । भोगको भी प्रसाद ग्रहण समझा और समग्न
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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