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________________ १२८ वचन- साहित्य-परिचय है । मोक्षमार्ग में ब्राह्मणसे चांडाल तक सब एक हैं। भक्ति सूत्रकारोंने तथा आगमकारोंने जो बात कही थी, उन्होंने जो परंपरा निर्माण की थी, उसको सामूहिक तौर पर आचरण में लाकर दिखाया । उनके सिद्धांत पर उन्होंने प्रयोग प्रारंभ किये । प्रथम उन्होंने लोगों के सामने साक्षात्कारका उच्च प्रादर्श रखा । यदि ग्रांखों के सामने कोई निश्चित श्रादर्श न हो सो 'प्रगति' का कोई अर्थ ही नहीं ! प्रगति किस ओर ? प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी दिशामें प्रगति करता जाएगा, और समाज विच्छिन्न हो जाएगा । सामूहिक प्रगति के लिए सामूहिक श्रादर्श चाहिए । इसलिए वचनकारोंने सर्वप्रथम समाजके सामने अत्यंत उत्साहसे एक सामूहिक आदर्श रखा । केवल शाब्दिक आदर्शसे काम नहीं चलता । उस प्रदर्शको प्राप्त करनेकी परिस्थिति भी निर्माण करनी चाहिए। उसके लिए ग्रावश्यक साधनाक्रम भी चाहिए। उसके अनुकूल विचार मालिका भी चाहिए । उन विचारों पर निर्भयता से प्राचरण करने की क्षमता भी चाहिए । वचनकारोंने इन सब बातों का प्रयास किया । अपने विचारोंको निर्भयतासे, किंतु उतने ही नम्र वनकर आचरण में लानेवाले लोग ही समाजके नेता वन सकते हैं । वचन - कारों ने भी यही किया | अनुभव मंटपके साधक केवल विचारोंको कहकर ही चुप नहीं रहे । कथनीके अनुसार करके दिखाया भी। इस प्रकार उन्होंने एक 'अच्छे समाजकी नींव रखने में एक कदम आगे बढ़ाया। एक निश्चित आदर्श, एक ही इष्टदेव, एक ही प्रकारकी दीक्षा, एक ही एक मंत्र, अनेक प्रकारके साधनामार्गीका एक विशिष्ट प्रकारका समन्वय, वैसा ही वंधुत्व यादि बातोंसे अनेक जातियों के संगठन से शक्तिशाली संघटन बनाया । वह एक विशाल साधकपरिवार वना । सब भक्ति-साम्राज्य के बंधु बने । शिव दीक्षारत सब एक ही घरके हैं । एक ही कुटुंबके हैं । इस भावनाका उत्कट विकास किया । "समाजहितका प्रत्येक कार्य ईश्वर पूजा है," यह भाव भरा | सेवा कार्यके विषय में जो उच्च-नीच का भाव था उसको मिटाया । समाजके प्रत्येक सदस्यको अपने श्रमसे अपनी रोटी कमानी चाहिए, ऐसे कायक - सिद्धांत का प्रचार किया जिससे उनकी साधना उज्ज्वल हो । उनमें परोपजीवित्व न श्राये । वह पर प्रकाशित न बने । इससे कई मूलभूत उद्योगों का महत्त्व बढ़ा । मोक्षके लिए घर-द्वार छोड़ देना चाहिए, गेरुए कपड़े पहनने चाहिएं ग्रादि भ्रम मिटा । उन्होंने कहा, प्रामाfucarसे कमाया हुद्या कायक ही लिंगार्पण करने योग्य है । लिंगार्पित प्रसाद' ही अमृतान्न है | सत्य शुद्ध कायक चित्तको नहीं उलझा सकता । नित्यका कायक नित्य लिंगार्पण होना चाहिए । संग्रह नहीं करना चाहिए । नियमित कायक के अलावा प्रशासे किया हुआ धन - स्पर्श पाप है । वह साधना के लिए कलंक है । इस तरह के विचार और इन विचारोंके आचारसे समाज में नये 1
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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