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________________ वचन-साहित्यमें नीति और धर्म १२७ हुई आग पहले अपने घरको जलाकर ही फिर दूसरोंके घरको जलाती है, वैसे ही क्रोध पहले क्रोधीको जलाता है। पहले अपनेको मिटाकर फिर दूसरोंको मिटाने जाता है। __ वचनकारोंकी नीति धर्माभिमुख नीति है । अर्थात् व्यक्तिगत तथा सामूहिक अभ्युदय और निःश्रेयसकी सहायक। सर्वसामान्य प्रवृत्तियोंको सीमित करके निवृत्तिकी ओर ले जाने वाली नीति है । उनके सामाजिक विचार भी क्रांतिकारी हैं। समन्वयकारी हैं । समाज क्या है ? समाजका अर्थ क्या है ? समाजके विषयमें विचार करने पर लगता है कि समाज देश, भाषा, जाति, धर्म, समान हिताहित आदिके कारण वने हुए अलग-अलग संघोंका महासंघ है। इन सब संघोंमें तथा संघोंके सदस्योंमें सौहार्द हो, शांति हो, स्थिरता हो, स्वस्थ संबंध हो, इसी विचारसे समाजके नियम बनाये जाते हैं। इसी विचारसे उसमें पावश्यक परिवर्तन किये जाते हैं । वचनकारोंके कहे हुए नियमोंका अध्ययन करने पर यही लगता है कि वह संघटन-चतुर थे । सामाजिक संघटनको खोखला बनानेवाले दोष कौन-से हैं, इनका उन्होंने विचार किया है । ऊंच-नीचका कृत्रिम भाव ही समाज संघटनको ध्वस्त करने वाला है, अर्थात् उन्होंने उसका विरोध किया। उन्होंने कहा है कि सवं ऋषियोंकी अोर देखो ! वह किस सत्कुल में पैदा हुए थे? वह सब भगवानके शरण गये, इसलिए तर गये। जो एक बार भगवानकी शरण गया, भगवदुरूप होगया। शिवशरणोंका कोई कुल नहीं है रे ! वह सब एक कुलके हैं । वह कुल शिव-कुल है। इसी प्रकार उन्होंने समताका प्रचार किया। संकीर्णताके विरोधमें आवाज उठायी । गुणग्राहकता, उद्योगशीलता, समान आदर्श, संस्कृति यादिका विकास किया। भारतके समाजोंमें सदियोंसे अनेक प्रकारकी जाति-उपजातियां हैं। उनमें ऊंच-नीचका भाव है। तज्जन्य वैमनस्य है । विरोध है। उससे नित सिर फूटते हैं। हो सकता है कि ऐतिहासिक दृष्टिसे देखा जाय तो किसी काल में उसकी आवश्यकता रही हो । किंतु समयके साथ उसकी आवश्यकता समाप्त हो गयी। जाति-भेदकी आवश्यकता मिटी, किंतु उसकी बुराई नहीं मिटी । उससे समाज में जो फूट पड़ी वह नहीं मिटी । उच्च मानी जानेवाली जातियोंमें वृथा अभिमान, दुरभिमान, दूसरों पर प्रभुत्व जमानेकी भावना प्रादि दुर्गुण पनपे । नीच मानी जानेवाली जातियोंमें दास्यभाव पनपा। चाहे जो अन्याय सहन करने की स्वाभिमानशून्यता खिली । अात्मविश्वास मिटा। समाजकी सामूहिक कर्तृत्व शक्तिका ह्रास होता गया । कृत्रिम विषमताके कारण मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष आदि बढ़ता गया। यह देखकर वचनकारोंने समानताका संदेश सुनाया। उन्होंने कहा जन्मगत योग्यता व्यर्थ है । कर्मगत योग्यता ही सच्ची योग्यता
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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