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________________ १२६ वचन - साहित्य- परिचय अलावा अन्य किसी प्रारणी में अपने भोजन के नियमोंमें जो निसर्गने उनके लिए वना दिये हैं यत्किंचित् भी परिवर्तन करनेकी शक्ति नहीं है । मनुष्य अपनी इच्छासे चाहे जैसा भोजन बना लेता है । अतः मनुष्य के लिए रसनेंद्रियका संयम आवश्यक हो जाता है । यही बात अन्य इंद्रियोंकी है । यदि मनुष्यने अपनी इंद्रियों की भूख मिटाना ही अपना आदर्श मान लिया तो बात दूसरी है । ऐसी स्थिति में वह प्रात्यंतिक सत्यकी खोज श्रथवा उसका अनुभव नहीं कर सकेगा । शाश्वत सुखकी खोज नहीं कर सकेगा । यदि साक्षात्कार, सत्यानुभव अथवा मुक्ति-सुख वह चाहता है तो उसे अपनी इंद्रियोंकी भूखको सीमित करना ही पड़ेगा | केवल उपभोगसे इंद्रियों की भूख कभी शमन नहीं हो सकती । वह तो श्रात्माकी भूखको जगानेसे अर्थात् गीताकी भाषामें कहना हो तो 'परं दृष्ट्वा' के पश्चात् 'निवर्तन' होती हैं । वचनकारोंकी भाषा में कहना हो तो साक्षात्कार के उपरांत मिटती है । और जो अपनी इंद्रियोंके विषयोंको चाहते हैं उन्हें जब विषय नहीं मिलते तो काम, क्रोधादि विकार-परंपराका प्रारंभ हो जाता है । इसीलिए वचनकारोंने सर्वार्पिणका मार्ग सुझाया है । अपने भोगोंको भी ईश्वरा रण कर दो। उन्हें भी ईश्वरका प्रसाद मानकर स्वीकार करो। उन्हीं के शब्दों में कहना हो तो, श्रधरकी रुचि और उदरका सुख यदि लिंगार्पण न हो तो विष समान हैं । वचनकारोंने भगवानको अनर्पित भोग स्वीकार करनेका विरोध किया है । इंद्रिय निग्रह ग्रथवा मनोजय, यह शब्द देखने में छोटे-से दीखते हैं । किंतु इनका अर्थ गहरा है । इन्हीं दो शब्दों में नीतिशास्त्रका रहस्य भरा हुआ है । नीतिशास्त्रका उद्देश्य क्या है ? नीतिशास्त्रका उद्देश्य व्यक्तिको उच्च, उच्चतर तथा उच्चतम स्थितिका प्रानंद प्राप्त करा देना और समाज में सुख-शांति तथा सुस्थिरताका निर्माण करना है । किसी भी समाजके लोग उसी सीमातक उच्च, उच्चतर और उच्चतम ग्रानंद प्राप्त कर सकेंगे जिस सीमा तक उस समाज के जितने अधिक लोग इंद्रिय निग्रह तथा मनोजय में सफल हुए हैं । जिसने अपनी इंद्रियों को तथा मनको जीता है वही विश्वमें होनेवाली घटनाओं की घोर साक्षी रूप से देख सकेंगे । तटस्थ दर्शक होनेके लिए मनो-विजय अत्यंत श्रावश्यक है । वचनकारोंने सर्वत्र इसका विवेचन किया है । उन्होंने सुख-दु:ख, मान-अपमान दिशांत भावसे, समदृष्टिसे सहन करनेकी शिक्षा दी है। उन्होंने लिखा है, कोई श्रविचारसे तुम पर पत्थर फेंके, अथवा प्रेमसे फूल, दोनोंको एक-सा मानकर अपना कर्तव्य करी । यदि कोई हमारी गलतियां वतादे तो हमें क्रोध नहीं करना चाहिए, वरन् शांत भावसे उसका विचार करना चाहिए। उन गलतियोंको सुधारना चाहिए । सुधारनेका प्रयास करना चाहिए। शारीरिक क्रोध अपने बडप्पनका शत्रु है । मानसिक क्रोध ज्ञानका हनन करता है । घर में सुलगी
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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