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________________ वचन - साहित्य परिचय किंतु अभ्युदय प्रवृत्तिका परिणाम है, और निःश्रेयस निवृत्ति-मूलक है । प्रवृत्तिके परिणामस्वरूप जो अभ्युदय है वह निवृत्ति-मूलक निःश्रेयस की पूर्व तैयारी कैसे हो सकता है ? इसके लिए मनुष्यकी सब प्रकारकी शक्तियां तथा उनके गुण-कर्मोंका विचार करना चाहिए । मनुष्य जीवनका मूल आधार क्या है ? मनुष्यके जड़ शरीरमें चैतन्ययुक्त प्रारण सर्वत्र संचार करता है । अर्थात् मनुष्य के चैतन्यका ग्राधार प्रारण है । और चैतन्ययुक्त जीवनकी सभी संवेदनाका आधार मन है । तथा मनकी विमर्शाशक्ति, बुद्धि श्रादिका आधार है श्रात्मा । वह श्रात्मा श्रहंभाव से युक्त है । जीवन के सभी घटकों का संपूर्ण रूप से विश्लेषण करने पर लगता है कि तन, मन और आत्मा ये ही तीन घटक हैं । इन तीन घटकों का सम्मिलित अस्तित्व ही यह मानव है। शरीरका अर्थ है चैतन्ययुक्त शरीर । मनका अर्थ अनेक संवेदनाओंको अनुभव करनेवाला, संकल्पविकल्पके लिए आधारभूत विमर्शाशक्ति से युक्त अंतरिद्रिय है । तथा आत्मा व्यक्तित्व श्राधारभूत उस शक्तिका नाम है जो स्वयं कभी विकृत न होते हुए सव प्रकार के अनुभवों के हेतुरूप श्रीर चिदात्मक है । इन सब घटकोंसे वना हुआ मनुष्य सदैव सुख-दुख, राग-द्वेष, शीत-उष्ण आदि द्वंद्वोंको भुगतता रहता है । फिर भी वह शाश्वत सुखकी प्रपेक्षा करता रहता है । साथ-साथ उसकी यह भी अपेक्षा रहती है कि वह इसी जीवनमें मिलना चाहिए। यह सब मनुष्य के मरने से पहले, अर्थात् इन तीनों घटकों का विघटन होनेसे पहले होना चाहिए। क्योंकि जवतक इन तीनों घटकों का विघटन नहीं होता तब तक मनुष्य अपनी अपूर्णताका अनुभव करता रहता है । और जब अपूर्णताका अनुभव होता है तभी पूर्णताकी १२० और मनके दोषोंके कांक्षा रहती है । इसी श्राकांक्षासे मनुष्य अभ्युदयसे निःश्रेयसकी ओर बढ़ता है । देह, मन और श्रात्मा, इन तीनोंसे युक्त मनुष्य देह कारण पूर्णत्वका अनुभव करता है । इस पूर्णत्व के अनुभवसे पूर्णत्वकी आकांक्षा पैदा होती है । पूर्णत्वकी प्राप्तिका प्रयास होने लगता है । तब वह अपने जैसे श्रादमियोंको खोजता है । उनका सहयोग प्राप्त करता है । और फिर सह-उद्योग प्रारंभ होता है । सामूहिक साधनाका प्रारंभ होता है । इसी अर्थ में मनुष्य सामाजिक प्राणी है । जबतक जीवन है, अर्थात् तन, मन और आत्माका विघटन नहीं होता है तब तक जीवन मुक्त स्थितिमें जानेपर भी जीवात्मा के लिए शरीर तथा मनका संबंध रहेगा ही, श्रर्थात् समाजका संबंध भी अनिवार्य है । किंतु उस स्थिति में वह 'यह तन मेरा है' । 'मन मेरा हैं', मान-अपमान मेरा है', आदि नहीं मानता। वह इन सबसे परे हो जाता है । वह अनुभव करता है कि मैं इन सबसे परे हूं। यह सुख-दुःख आदि नश्वर हैं । दोषपूर्ण है । आज रहेंगे कल नहीं रहेंगे। किंतु मैं अमर हूं । मैं श्रात्मा हूं । शुद्ध हूं । ईश्वरांश हूं । इस
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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