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________________ वचन-साहित्यमें नीति और धर्म १२१ भावनासे केवल साक्षीरूप वनकर रहता है । इसके लिए मनुष्यको आत्म-ज्ञानकी आवश्यकता है । वचनकारोंकी भाषामें कहना हो तो साक्षात्कार होना चाहिए। और उस साक्षात्कारके लिए अत्यंत तीव्र और उत्कट साधना होनी चाहिए । जब तक ऐसी साधनासे सिद्धि प्राप्त नहीं होती तब तक उसको इस मन, तन और समाजके सहारे ही रहना होगा। ऐसी स्थिति में उसका और समाजका क्या संबंध होना चाहिए ? और जीवन-मुक्तिके बाद भी जब तक विदेह मुक्ति नहीं होती अथवा तन, मन और आत्माका विघटन नहीं होता, उसका और समाजका क्या संबंध होना चाहिए ? इसमें संशय नहीं कि जीवन्मुक्त सिद्ध पुरुष उदासीन स्थितिमें रह सकता है । किंतु यदि उस जीवन्मुक्त स्थितिको निर्विघ्न स्थितिमें रखना हो, अथवा अन्य लोगोंको भी ऐसी स्थिति तक पहुंचाना हो तो तन, मन और समाजकी सुस्थिति आवश्यक है । तत्त्वतः मनुष्य केवल प्रात्मस्वरूप है । निरहंकार है । शुद्ध-बुद्ध है । नित्य पानंदमय है। किंतु तन और मन द्वारा समाजसे संबद्ध है। अर्थात् समाजसे उसका ममत्व भी है । इसलिए उसको निःश्रेयस प्रधान अभ्युदयका आसरा लेना पड़ता है । तब पुनः यही सवाल उठता है कि साधक और समाज तथा सिद्ध और समाजका संबंध कैसा हो ? ___जब व्यक्ति और समाजकी बात उठती है तब नीतिका विचार करना पड़ता है। किसी भी व्यक्ति और समाजके लिए अथवा उन्नति या प्रगतिके लिए समाजमें शांति, स्वास्थ्य और स्थिरताकी आवश्यकता होती है। इसलिए कुछ नियम तथा निर्वध भी आवश्यक होते हैं । इन नियमोंके अभावमें मनुष्यकी पाशविक प्रवृत्ति अत्यंत प्रबल हो जाती है । इससे समाज में अस्वस्थता, अराजकता तथा अनास्था फैल जाएगी। स्वार्थ, स्वैर तथा इंद्रिय लोलुपताके कारण काम, क्रोध, द्वेष आदि आसुरी प्रवृत्तियां बढ़ेगी। उन प्रासुरी गुणोंके प्रावल्यसे, दया, प्रेम, करुणा, प्रामाणिकता आदि दैवी गुणोंका हनन होगा। और यह दैवी गुण ही समाजके धारण-पोषणके लिए अावश्यक हैं । इन दैवी गुणोंके कारण ही मनुष्य अन्य पशु जगतसे अलग होकर देवकोटिमें जाने का प्रयास करता है। अथवा मानवका दिव्यीकरण होने लगता है । इसलिए शास्त्रकारोंने कई विधि-निषेध बताए हैं। कोई काम नहीं करना चाहिए, यह निषेध है । यह काम करना चाहिए यह विधि है । निषेधं संयम प्रधान है और विधि सत्प्रवृत्ति प्रधान । निषेधसे मनुष्यकी पाशवी प्रवृत्तियोंका, अथवा आसुरी गुणोंका हनन होता है तो विधिसे दैवी गुणोंका विकास होता है। विश्वके प्रत्येक धर्ममें नैतिक नियमोंका धर्माचरण में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । नीति नियमोंके अभाव धर्मकी कल्पना असंभव है । प्रत्येक धर्म नीतिके किसी न किसी नियम पर अधिक बल देता है ।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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