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________________ वचन-साहित्यमें नीति और धर्म ११६ करते हैं उन लोगोंका समाज कभी सुखी नहीं हो सकता । ऐसे लोगोंका समाज अधिक काल तक टिक नहीं सकता। इसके लिए सामाजिक अभ्युदयके साथ निःश्रेयसका होना आवश्यक है । व्यक्ति और समाजके अभ्युदय और निःश्रेयसके लिए समान संधि और प्रेरणा देनेवाले नियम ही धार्मिक नियम कहला सकते हैं। इस प्रकारकी व्यवस्था ही धार्मिक व्यवस्था है । समाज में व्यक्तिगत सुख और सामूहिक सुखमें संघर्ष न हो। उसमें सौजन्यपूर्ण सहयोग हो। दोनोंका समन्वय हो ऐसी व्यवस्था करना धर्मका कार्य है। अपरके विवेचनमें कई वार अभ्युदय और निःश्रेयस शब्द पाए हैं । इसलिए इन दोनों शब्दों का स्पष्ट अर्थ समझना अत्यंत आवश्यक है। आगमकारोंकी भाषामें अथवा पर्यायसे वचनकारोंको भाषामें अभ्युदय और निःश्रेयसका अर्थ है भुक्ति और मुक्ति । वचनकारोंकी भाषामें भुक्तिका अर्थ भौतिक प्रगति है । अभिवृद्धि, वैभव, यश, कीर्ति आदि इसके रूप हैं। और मुक्तिका अर्थ है आंतरिक प्रसन्नता, नित्य-आनंद, आत्म-कल्याण, शाश्वत सुख । यही अभ्युदय और निःश्रेयसका अर्थ है । इसमें प्रवृत्ति और निवृत्तिका समुचित समन्वय है । इसी वातको सर्वसामान्य लोगोंकी भाषामें कहना हो तो इसे चतुर्विध पुरुषार्थोंकी सिद्धि कह सकते हैं। काम, अर्थ, धर्म और मोक्षकी सिद्धि । इन चारों पुरुषार्थोंमें अविरोधी भाव होनेसे ही यह सिद्धि हो सकती है । काम और अर्थ धर्म और मोक्षका विरोधी न हो। किंतु उसके अनुकूल हो । धर्म और मोक्षके अनुकूल काम और अर्थकी साधना कैसे हो सकती है ? यही कहना धर्मका कार्य है। धर्म इस ध्येयकी सिद्धिकी साधना है । जिस अभ्युदयके अभावमें मनुष्यका जीवन चलना असंभव है वह अभ्युदय धर्मानुकूल है । अथवा जिस काम और अर्थके अभावमें व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन यात्रा चलना असंभव है उस काम और अर्थकी साधना धर्म और मोक्षकी अविरोधी है । वह धर्म और मोक्षके अनुकूल है। वह काम और अर्थ मनुष्यके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा भावात्मक स्वास्थ्यको ठीक रखेगा। वह मनुष्यके सर्वांगीण विकासका साधन बनेगा। यही बात निःश्रेयसकी है। वही निःश्रेयस धर्मसम्मत है जो मनुष्यके भौतिक जीवनमें अभाव पैदा न करे । जिससे साधककी स्वस्थ जीवन यात्रा असंभव न हो, अपितु वह स्वस्थ जीवन यात्रामें सहायक हो । अभ्युदय और निःश्रेयसके समुचित समन्वय द्वारा मनुष्यके व्यक्तिगत और सामूहिक स्वस्थ और सर्वतोमुखी विकासका साधन जुटा देना धर्मका कार्य है । इस दृष्टिसे विचार करने परं लगता है कि अभ्युदय निःश्रेयसकी पूर्व तैयारी है । भुक्ति मुक्तिकी साधना है। काम और अर्थ, धर्म और मोक्षका मार्ग है।
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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