SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वचन-साहित्य-परिचय एक ही फूलका वर्णन जैसे भिन्न-भिन्न प्रकारका होता है, वैसे ही अलग-अलग वचन कारोंने उसका वर्णन अलग-अलग प्रकारसे किया है। यह वर्णन परस्पर पूरक ही है। वह आत्यंतिक तत्त्व शून्य है, निरवयव है, निःकल है, रंग-रूप रहित है, यह वचनकारोंका अनुभव-जन्य कथन है । वेदांत-मार्गी सिद्धोंने तुरीयावस्थाका अनुभव करके यही कहा है। योगियोंने निर्विकल्प समाविमें अनुभव करके यही कहा है। इसी अवस्थाको वचनकारोंने समरसैक्य कहा है । और उन्होंने यह अनुभव कन्नड़ भाषा और वचन शैलीमें कहा है । अव प्रश्न यह उठता है कि इस अखंड, द्वंद्वातीत, एक रसात्मक तत्वसे यह द्वंद्वात्मक, 'सादि' 'सांत', (जिसका श्रादिअंत है ), अनेक रसात्मक विश्व कैसे उत्पन्न हुआ ? वेदांत शास्त्र में यह एक अत्यन्त महत्वका प्रश्न है । यदि सृष्टिको कोई कार्य कहें तो उसक कारण और स्रष्टाका होना आवश्यक है। यदि यह कार्य ही नहीं है ऐसा कहा जाए तो तत्वतः विश्व नामका कुछ है ही नहीं। इस लिए वेदांतका मत है कि यह विश्व विवर्त है, मिथ्या है। मृगजलकी तरह आँखोंको भास होता है । वस्तुतः कुछ नहीं है । किंतु वचनकार इसको नहीं मानते। वचनकार विश्वको स्पष्टतः कार्य मानते है। वह मानते हैं कि परशिवने अपनी शक्तिके विनोदार्थ, संकल्पसे इसका निर्माण किया है । इस कार्य के पीछे कारणहोना अनिवार्य है । कुछ उद्देश्य होना आवश्यक है तो भला अकाम शिवमें उद्देश्यकी संभावना कैसी ? इसलिए लीला, विनोद शब्दोंका प्रयोग किया गया है । शिवने विश्वका निर्माण किया, इसका अर्थ विश्वकी सभी सचराचर वस्तुओं और जीव-सृष्टिका निर्माण किया । किंतु शिव अथवा सत्य, ऐसा एक ही तत्व था तो इस विविधतापूर्ण विश्वका कैसे निर्माण हुआ ? परशिवके संकल्पसे अथवा स्मरणसे प्रथम चित्शक्ति निर्मित हुई । वह सत्, चित्, आनंद, नित्य-परिपूर्ण है । वह नि:कल शिव-तत्व है । उसको अपनी शक्तिके चलन मात्रसे प्रवृत्ति, निवृत्ति, अथवा शक्ति-भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ । उस शक्तिकी क्रिया-शक्तिसे मायाका प्रादुर्भाव हुआ। मायासे पुरुष, प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, मन, पंचनानेंद्रिय, पंचकर्मेंद्रिय, तथा पंचतन्मात्राएँ और पंचमहाभूत निर्मित हुए, जिनसे यह विश्व बना है, और एक स्थान पर एक ही वस्तुसे गुणत्रयका प्रादुर्भाव हुा । तीन गुणोंसे तीन मल निकले । उन तीन मलोंके 'पाणव मल', 'मायामल', 'कार्मिकमल" ये नाम हैं । वचनकारों ने ऐसा भी कहा है कि इन मलोंसे पह विविधतापूर्ण विश्व वना। एक वचनमें यह भी कहा है कि सत्व, रज, तम, इन तीन गुणोंका प्रादुर्भाव हुआ और उन तीन गुणोंके क्षोभमे यह विश्व वना । वचनकार उस तत्वकी लीला-वृत्तिको ही इस विश्वका कारण मानते हैं । वे कहते हैं कि शिवकी लीला-वृत्तिके स्मरण-संकल्पसे अनंत कोटि ब्रह्माण्डौंका
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy