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________________ वचन-साहित्यका सार-सर्वस्व ८६ निर्माण हुआ । अनंत करोड़ों जीवोंका निर्माण हुआ । यह जीव पच्चीस तत्वोंके जालमें फंसकर, अपने प्रात्म-रूपको भूल कर, देह ही मैं हूँ, इस देह भानसे “दुःखी होते हैं । सारे दुःखोंका कारण यह देह भान है, 'देह ही मैं हूँ।' यह भाव है। वस्तुतः ऐसा नहीं है । विश्वकी उत्क्रांतिका यह कारण देनेसे और एक प्रश्न 'उठता है । क्या उस तत्वको कर्मका बंधन नहीं लगता? क्योंकि वही सृष्टिकर्ता है । वचनकार इस प्रश्नका उत्तर देते हैं । वह निष्काम है । अलिप्त है । इसलिए 'वह सब कुछ करके भी अकर्ताके रूपमें रह सकता है। जिस तत्वको वचनकारोंने 'परशिव' कहा है उसको अन्य भारतीय दर्शनकारोंने परमात्मा कहा है । परशिव विश्वव्यापी है । किंतु वह जड़से चरमें, चरसे चेतन में, चेतनसे जीवमें, सामान्य जीवसे वुद्धियुक्त जीवमें, बुद्धियुक्त जीवसे मनुष्यमें, सामान्य मनुष्यसे सत्वशील भक्त अथवा ज्ञानीमें अधिक प्रत्यक्ष होता है । वचनकार कहते हैं कि इसलिए परशिवको जानना जैसे भक्त अथवा ज्ञानीके लिए सुलभ साध्य है वैसे औरोंके लिए नहीं। क्योंकि अन्य सब मायाके आवरणमें आबद्ध रहते हैं अज्ञानके आधीन होते हैं। सुख-दुःखादि द्वंद्वोंमें फंसकर कर्मचक्रमें, पर्यायसे जन्म-मरणके चक्रमें फिरते रहते हैं। अहंकार, अभिमान, कामिनी, कांचन, तथा भूमिका लोभ, काम, क्रोधादि विकार, ये सव मायाके विविध रूप हैं । यदि सच देखा जाए तो यह देह पंचभूतात्मक है, नाशवान है। धन कुवेरका है । मन वायुका खेल है । कर्म शक्तिका खेल है । ज्ञान 'चिद्घन' से प्राप्त है। 'इसमें भला हमरा अपना क्या है ? फिर भी जीव यह सब मेरा-मेरा कहकर “रोता रहता है। यही अज्ञान है। इसी अज्ञानके कारण मनुष्य अपने को नहीं ‘पहचान पाया। परमात्मासे विमुख होता है। परमात्माभिमुख जीव मुक्त है । · परमात्मासे विमुख जीव बद्ध है । यदि मनुष्य इस बातको अच्छी तरह समझ ले तो उसका उद्धार निश्चित है। किंतु मनुष्य अपनी पशु-वृत्ति नहीं छोड़ता। : मनुष्यमें सब प्रकारके बंधनसे मुक्त होनेकी शक्ति है। किंतु वह वैसा प्रयत्न नहीं करता । वचनकार समग्र मानव-कुलको मनुष्यकी इस शक्तिसे परिचित करानेके लिए तड़पते हैं। इसीलिए उन्होंने संस्कृतमें स्थित अध्यात्म-शास्त्रको लोकभाषामें प्रचलित किया । उस समयकी लोक-भाषामें उसका देश भरमें प्रचार 'किया। उनकी यह मान्यता है कि शाश्वत सुख सबकी संपत्ति है । सवकी संपत्ति - सबको मिले , यही उन संतोंकी मंगल-कामना है । वचन-साहित्यके निर्माणकी जड़में यही मंगल कामना है उनकी हष्टिसे तत्वतः ‘जीव परमात्माका अंश-भूत है । उसके दुखी होनेका कोई कारण नहीं है । किंतु 'विश्वोत्पत्तिके कारणीभूत माया-शक्तिके कारण मनुष्यको अपनी वास्तविकताका विस्मरण हुआ है । माया कोई नया तत्व निर्माण नहीं करती। वह अपने
SR No.034103
Book TitleSantoka Vachnamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRangnath Ramchandra Diwakar
PublisherSasta Sahitya Mandal
Publication Year1962
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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