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________________ ८९८ -------told---------- • अर्चयस्य हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • *********..........................................***** सुदीर्घा, परिवर्तुला, सप्तभौमा, अष्टभौमा, दीप्ता और माया- ये आठ और हैं। इस प्रकार नरककी कुल अट्ठाईस कोटियाँ बतायी गयी हैं। उपर्युक्त कोटियोंमेंसे प्रत्येकके पाँच-पाँच नायक हैं। उनके नाम सुनो। उनमें पहला रौरव है, जहाँ देहधारी जीव रोते हैं। दूसरा महारौरव हैं, जिसकी पीड़ाओंसे बड़े-बड़े जीव भी रो देते हैं। तीसरा तम, चौथा शीत और पाँचवाँ उष्ण है। ये प्रथम कोटिके पाँच नायक माने गये हैं। इनके सिवा सुघोर, सुतम, तीक्ष्ण, पद्म, सञ्जीवन, शठ, महामाय, अतिलोम, सुभीम, कटङ्कट तीव्रवेग, कराल, विकराल, प्रकम्पन, महापद्म, सुचक्र, कालसूत्र, प्रतर्दन, सूचीमुख, सुनेमि, खादक, सुप्रदीपक, कुम्भीपाक, सुपाक, अतिदारुणकूप, अङ्गारराशि, भवन, अस्क्पूयहद, विरामय, तुण्डशकुनि, महासंवर्तक, ऋतु, तप्तजतु, पङ्कलेप, पूतिमांस, द्रव, त्रपु उच्छ्वास, निरुच्छ्वास, सुदीर्घ, कूटशाल्मलि दुरिष्ट, सुमहानाद, प्रभाव, सुप्रभावन, ऋक्ष, मेष, वृष, शल्य, सिंहानन व्याघ्रानन, मृगानन, सूकरानन, श्वानन, महिषानन, वृकानन, मेषवरानन, ग्राह, कुम्भीर, नक्र, सर्प, कूर्म, वायस, गृध, उलूक, जलूका, शार्दूल, कपि, कर्कट, गण्ड, पूतिवक्त्र, रक्ताक्ष, पूतिमृत्तिक, कणाधूम, तुषात्रि, कृमिनिचय, अमेय, अप्रतिष्ठ, रुधिरान्न, वभोजन, लालाभक्ष, आत्मभक्ष, सर्वभक्ष, सुदारुण, सङ्कष्ट, सुविलास, सुकट, संकट, कट, पुरीष, कटाह, कष्टदायिनी वैतरणी नदी, सुतप्त लोहशङ्कु, अयः शङ्कु, प्रपूरण, घोर, असितालवन, अस्थिभङ्ग, प्रपीड़क नीलयन्त्र, अतसीयन्त्र, इक्षुयन्त्र, कूट, अंशप्रमर्दन, महाचूर्णी, सुचूर्णी, तप्तलोहमयी शिला, क्षुरधाराभपर्वत, मलपर्वत, मूत्रकूप, विष्ठाकूप, अन्धकूप, पूयकूप, शातन, मुसलोलूखल, यन्त्रशिला, शकटलाङ्गल, तालपत्रासिवन, महामशकमण्डप, सम्मोहन, अतिभङ्ग, तप्तशूल, अयोगुड, बहुदुःख, महादुःख, कश्मल, शमल, हालाहल, विरूप, भीमरूप, भीषण, एकपाद द्विपाद, तीव्र तथा अवीचि यह अवीचि अन्तिम नरक है। इस प्रकार ये क्रमशः पाँच-पाँचके अट्ठाईस समुदाय [ संक्षिप्त पद्मपुराण 200232229-------- माने गये हैं। एक-एक समुदाय एक-एक कोटिका नायक है। रौरवसे लेकर अवीचितक कुल एक सौ चालीस नरक माने गये हैं। इन सबमें पापी मनुष्य अपने-अपने कर्मोंक अनुसार डाले जाते हैं और जबतक भाँतिभौतिकी यातनाओंद्वारा उनके कर्मोंका भोग समाप्त नहीं हो जाता, तबतक वे उसीमें पड़े रहते हैं। जैसे सुवर्ण आदि धातु जबतक उनकी मैल न जल जाय तबतक आगमें तपाये जाते हैं, उसी प्रकार पापी पुरुष पापक्षय होनेतक नरकोंकी आगमें शुद्ध किये जाते हैं। इस प्रकार फ्रेश सहकर जब ये प्रायः शुद्ध हो जाते हैं, तब शेष कर्मो के अनुसार पुनः इस पृथ्वीपर आकर जन्म ग्रहण करते हैं। तृण और झाड़ी आदिके भेदसे नाना प्रकारके स्थावर होकर वहाँके दुःख भोगनेके पश्चात् पापी जीव कीड़ोंकी योनिमें जन्म लेते हैं। फिर कीटयोनिसे निकलकर क्रमशः पक्षी होते हैं। पक्षीरूपसे कष्ट भोगकर मृगयोनिमें उत्पन्न होते हैं वहाँके दुःख भोगकर अन्य पशुयोनिमें जन्म लेते हैं। फिर क्रमशः गोयोनिमें आकर मरनेके पश्चात् मनुष्य होते हैं। माताओ ! हमने यमलोकमें इतना ही देखा है। वहाँ पापीको बड़ी भयानक यातनाएँ होती हैं। वहाँ ऐसे-ऐसे नरक हैं, जो न कभी देखे गये थे और न कभी सुने ही गये थे। वह सब हमलोग न तो जान सकती हैं और न देख ही सकती हैं। माताएँ बोलीं- बस, बस, इतना ही बहुत हुआ। अब रहने दो। इन नरक यातनाओंको सुनकर हमारे सारे अङ्ग शिथिल हो गये हैं। हृदयमें भय छा गया है। बारम्बार उनकी याद आ जानेसे हमारा मन सुध-बुध खो बैठता है। आन्तरिक भयके उद्रेकसे हमलोगोंके शरीरमें रोमाञ्च हो आया है। कन्याओंने कहा- माताओ ! इस परम पवित्र भारतवर्षमें जो हमें जन्म मिला है, यह अत्यन्त दुर्लभ है। इसमें भी हजार-हजार जन्म लेनेके बाद पुण्यराशिके सञ्चयसे कदाचित् कभी जीव मनुष्ययोनिमें जन्म पाता है: परन्तु जो माघस्नानमें तत्पर रहनेवाले हैं, उनके लिये कुछ
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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