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________________ उत्तरखण्ड ] . यमलोकसे लौटी हुई कन्याओके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोका वर्णन . . . . . . प्रज्वलित अग्निके समान कान्तिवाले भाँति-भांतिके बलपूर्वक अन्यायसे जो तुमने प्रजाजनोंको दण्ड दिया भयङ्कर आरों और भिन्दिपालोंसे उन्हें विदीर्ण किया जाता है, इस समय उसका फल भोगो। कहाँ है वह राज्य है और वे पापी जीव पीब तथा रक्त बहाते हुए घावसे और कहाँ गयी वह रानी, जिसके लिये तुमने पापकर्म पीड़ित होते और कीड़ोंसे डंसे जाते हैं। इस प्रकार उन्हें किया था? अब तो सबको छोड़कर तुम अकेले ही विवश करके यमलोकमें ले जाया जाता है। वे भूख- यहाँ खड़े हो। यहाँ वह बल नहीं दिखायी देता, जिससे प्याससे पीड़ित होकर अन्न और जल माँगते हैं, धूपसे तुमने प्रजाओका विध्वंस किया। इस समय यमदूतोंकी बचनेको छायाके लिये प्रार्थना करते हैं और शीतसे मार पड़नेपर कैसा लग रहा है?' इस तरह नाना व्यथित होकर तापनेके लिये अग्नि मांगते हैं। जिन्होंने प्रकारके वचनोंद्वारा यमराजके उलाहना देनेपर वे उक्त वस्तुओका दान नहीं किया होता, वे उस पाथेयरहित राजा अपने-अपने कर्मोको सोचते हुए चुपचाप खड़े रह पथपर इसी प्रकार कष्ट सहते हुए यात्रा करते हैं। इस जाते हैं। प्रकार अत्यन्त दुःखमय मार्गसे चलकर जब वे प्रेत- इस प्रकार राजाओसे धर्मकी बात कहकर धर्मराज लोकमें पहुँचते हैं, तब दूत उन्हें यमराजके आगे उनके पापपङ्ककी शुद्धिके लिये अपने दूतोंसे इस प्रकार उपस्थित करते हैं। उस समय वे पापी जीव यमराजको कहते हैं-'ओ चण्ड ! ओ महाचण्ड !! तुम इन भयानक रूपमें देखते हैं। वहाँ असंख्यों भयानक राजाओंको पकड़कर ले जाओ और क्रमशः नरककी यमदूत, जो काजलके समान काले, महान् वीर और आगमें डालकर इन्हें पापोंसे शुद्ध करो।' तब वे दूत अत्यन्त क्रूर होते हैं, हाथोंमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र शीघ्र ही उठकर राजाओंके पैर पकड़ लेते हैं और उन्हें लिये मौजूद रहते है। ऐसे ही परिवारके साथ बैठे हुए बड़े वेगसे आकाशमें घुमाकर ऊपर फेंकते हैं। तत्पश्चात् यमराज तथा चित्रगुप्तको पापी जीव अत्यन्त भयङ्कर उन्हें पूरा बल लगाकर तपायी हुई शिलापर बड़े वेगसे रूपमें देखते हैं। पटकते हैं, मानो किसी महान् वृक्षपर वनसे प्रहार करते उस समय भगवान् यमराज और चित्रगुप्त उन हों। शिलापर गिरनेसे उनका शरीर चूर-चूर हो जाता है, पापियोंको धर्मयुक्त वाक्योंसे समझाते हुए बड़े रक्तके स्रोत बहने लगते हैं और जीव अचेत एवं निश्चेष्ट जोर-जोरसे फटकारते हैं। वे कहते है-ओ खोटे कर्म हो जाता है। तदनन्तर वायुका स्पर्श होनेपर वह करनेवाले पापियो ! तुमने दूसरोके धन हड़प लिये हैं धीरे-धीरे फिर साँस लेने लगता है। उसके बाद पापकी और सुन्दर रूपके घमंडमें आकर परायी खियोंके साथ शुद्धिके लिये उसे नरकके समुद्र में डाल दिया जाता है। व्यभिचार किया है। मनुष्य अपने-आप जो कुछ कर्म इस पृथ्वीके नीचे नरककी अट्ठाईस कोटियाँ है। वे करता है, उसे स्वयं ही भोगता है; फिर तुमने अपने ही सातवें तलके अन्तमें भयङ्कर अन्धकारके भीतर स्थित भोगनेके लिये पापकर्म क्यों किया? और अब अपने हैं। उनमें पहली कोटिका नाम घोरा है। उसके नीचे कौकी आगमें जलकर इस समय तुमलोग संतप्त क्यों सुघोराकी स्थिति है। तीसरी अतिघोरा, चौथी महाघोरा हो रहे हो? भोगो अपने उन कर्मोको। इसमें दूसरे और पाँचवीं कोटि घोररूपा है। छठीका नाम तरलतारा, किसीका दोष नहीं है। ये राजालोग भी अपने भयंकर सातवींका भयानका, आठवींका कालरात्रि और नवींका कर्मोसे प्रेरित हो मेरे पास आये हैं; इन्हें अपनी खोटी भयोत्कटा है। उसके नीचे दसवीं कोटि चण्डा है। उसके बुद्धि और बलका बड़ा घमंड था। अरे, ओ दुराचारी भी नीचे महाचण्डा है। बारहवींका नाम चण्डकोलाहला राजाओ! तुमलोग प्रजाका सर्वनाश करनेवाले हो। है। उसके बाद प्रचण्डा, नरनायिका, कराला, विकराला अरे, थोड़े समयतक रहनेवाले राज्यके लिये तुमने और वना है। [तीन अन्य नरकोंके साथ] वज्राकी पाप क्यों किया? राज्यके लोभमें पड़कर मोहवश बीसवीं संख्या है। इनके सिवा त्रिकोणा, पञ्चकोणा,
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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