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________________ ७३५ उत्तरखण्ड • श्रीविष्णुकी महिमा-भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा. mmmmmmmmmmmmm.sammann.................. श्रीविष्णुकी महिमा-भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा श्रीपार्वती बोलीं-विश्वेश्वर ! प्रभो ! भगवान् युधिष्ठिर बोले-समस्त शास्त्र-वेत्ताओंमें श्रेष्ठ, श्रीविष्णुका माहात्म्य अद्भुत है, जिसे सुनकर फिर धर्मके ज्ञाता पितामह ! कोई तो धर्मको सबसे श्रेष्ठ कभी संसार-बन्धन नहीं प्राप्त होता । आप पुनः उसका बतलाते हैं और कोई धनको। कोई दानकी प्रशंसा करते वर्णन कीजिये। हैं, तो कोई संग्रहके गीत गाते हैं। कुछ लोग सांख्यके - महादेवजीने कहा-सुन्दरी! मैं भगवान् समर्थक हैं, तो दूसरे लोग योगके । कोई यथार्थ ज्ञानको श्रीविष्णुके उत्तम माहात्म्यका वर्णन करता है, सुनोः इसे उत्तम मानते हैं, तो कोई वैराग्यको । कुछ लोग अनिष्टोम सुनकर मनुष्य पुण्य प्राप्त करता है और अन्तमें उसे आदि कर्मको ही सबसे श्रेष्ठ समझते हैं, तो कुछ लोग उस मोक्षकी प्राप्ति होती है। महाप्राज्ञ देवव्रत, जो इन्द्र आदि आत्मज्ञानको बड़ा मानते हैं, जिसे पाकर मिट्टीके ढेले, देवताओंके लिये भी दुर्घर्ष थे, कुरुक्षेत्रको पुण्यभूमिमे पत्थर और सुवर्णमें समबुद्धि हो जाती है। कुछ लोगोंके ध्यानयोगपरायण हो रहे थे। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके आश्रय मतमें मनीषी पुरुषोंद्वारा बताये हुए यम और नियम ही थे। उन्होंने अपनी इन्द्रियोंको वशमें कर लिया था। उनमें सबसे उत्तम हैं। कुछ लोग दयाको श्रेष्ठ बताते हैं, तो कुछ पापका लेश भी नहीं था। वे सत्यप्रतिज्ञ थे और क्रोधको तपस्वी महात्मा अहिंसाको ही सर्वोत्तम कहते हैं। कुछ जीतकर समतामें प्रतिष्ठित हो चुके थे। संसारके स्वामी मनुष्य शौचाचारको श्रेष्ठ बतलाते हैं, तो कुछ देवार्चनको। और सबको शरण देनेवाले भक्तवत्सल भगवान् नारायणमें इस विषयमें पाप-कर्मोसे मोहित चित्तवाले मानव चक्कर मन, वाणी, शरीर और क्रियाके द्वारा वे परम निष्ठाको खा जाते हैं-वे कुछ निर्णय नहीं कर पाते । इन सबमें जो प्राप्त थे। ऐसे शान्तचित्त तथा समस्त गुणोंके आश्रयभूत सर्वोत्तम कृत्य हो, जिसका महात्मा पुरुष भी अनुष्ठान कर कुरु-पितामह भीष्मको पृथ्वीपर मस्तक झुकाकर राजा सकें, उसे बतानेकी कृपा कीजिये। युधिष्ठिरने प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा। भीष्मजी बोले-धर्मनन्दन ! सुनो, यह अत्यन्त गूढ़ विषय है, जो संसारबन्धनसे मोक्ष दिलानेवाला है। यह विषय तुम्हें भलीभाँति सुनना और जानना चाहिये। पुण्डरीक नामके एक परम बुद्धिमान् और वेदविद्यासे सम्पन्न ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्य-आश्रममें निवास करते हुए सदा गुरुजनोंकी आज्ञाके अधीन रहा करते थे। वे जितेन्द्रिय, क्रोधजयी, संध्योपासनमें तत्पर, वेदवेदाङ्गोंके ज्ञानमें निपुण और शास्त्रोंकी व्याख्या करने में कुशल थे। प्रतिदिन सायंकाल और प्रातःकाल समिधाओंसे अग्निको प्रज्वलित करके उत्तम हविष्यसे होम किया करते थे। जगत्पति भगवान् विष्णुका ध्यान करके विधिपूर्वक उनकी आराधनामें लगे रहते थे। तपस्या और स्वाध्यायमें तत्पर रहकर वे साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्रकी भाँति जान पड़ते थे। जल, समिधा और फूल आदि लाकर निरन्तर गुरुकी पूजा प्रवृत्त रहते थे। उनके मनमें माता-पिताके प्रति भी पूर्ण सेवाका भाव था। वे भिक्षाका आहार करते और दम्भ-द्वेषसे दूर रहते
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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