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________________ . अर्चयस्व ह्रषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् . [संक्षिप्त परापुराण . . . . . . . . . . . . . . . . . . . थे। ब्रह्मविद्या (उपनिषद्) का स्वाध्याय करते और उन्होंने भलीभाँति शुद्धि प्राप्त कर ली थी। राग-द्वेषसे मुक्त प्राणायामके अभ्यासमें संलग्न रहते थे। उनके हृदयमें हो मूर्तिमान् स्वधर्मकी भाँति चित्तवृत्तियोंको भगवान्मे सबके प्रति आत्मभाव था । संसारकी ओरसे वे निःस्पृह लगाकर वे निरन्तर उनकी आराधनामें संलग्न रहते थे। हो गये थे। एक बार उनके मनमें संसार-सागरसे तारने- तदनन्तर किसी समय परमार्थ-तत्त्यके ज्ञाता वाला विचार उत्पन्न हुआ; फिर तो वे माता-पिता, भाई, साक्षात् सूर्यके समान महातेजस्वी, विष्णु-भक्तिसे परिपूर्ण सुहृद्, मित्र, सखा, सम्बन्धी, बन्धु-यान्धव, वंश- हृदयवाले तथा वैष्णवोंके हितमें तत्पर रहनेवाले देवर्षि परम्परासे प्राप्त एवं धन-धान्यसे परिपूर्ण गृह, सब नारदजी तपोनिधि पुण्डरीकको देखनेके लिये उस प्रकारके अन्नकी पैदावारके योग्य बहुमूल्य खेत तथा स्थानपर आये। नारदजीको आया देख पुण्डरीक प्रसन्न उनकी तृष्णा छोड़कर महान् धैर्यसे सम्पन्न और परम चित्तसे उठे और हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। सुखी होकर पैदल ही पृथ्वीपर विचरने लगे। 'यह तत्पश्चात् विधिपूर्वक अर्घ्य निवेदन करके उन्होंने पुनः यौवन, रूप, आयु और धनका संग्रह सब अनित्य है- नारदजीको मस्तक झुकाया। फिर मन-ही-मन विचार यो विचारकर उनका मन तीनों लोकोको ओरसे फिर र गया। पाण्डुनन्दन ! महायोगी पुण्डरीक पुराणोक्त मार्गसे यथासमय समस्त तीर्थो विधिपूर्वक विचरने लगे। एक समय धीर तपस्वी महाभाग पुण्डरीक अपने पूर्वकाँक अधीन हो घूमते-घामते शालग्राम-तीर्थमें जा पहुँचे, जो तपस्याके धनी एवं तत्त्ववेत्ता मुनियोंके द्वारा सेवित था। उस परम पुण्यमय क्षेत्रमें सरस्वती नदीके देवहद नामक तीर्थमें स्नान करके उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वे महाबुद्धिमान् ब्राह्मण वहींके जातिस्मरी, चक्रकुण्ड, चक्र नदीसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य कुण्ड तथा अन्यान्य तीर्थोंमें भी घूमने लगे। तीर्थ-सेवनसे उनका अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध हो चुका था, अतः उन्होंने ध्यानयोगमें प्रवृत्त होकर वहीं अपना आश्रम बना लिया। उसी तीर्थमें शास्त्रोक्त विधि तथा परम भक्तिके साथ भगवान् गरुडध्वजकी आराधना करके वे सिद्धि पाना चाहते थे; इसलिये शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे रहित Eye एवं जितेन्द्रिय हो दीर्घ कालतक अकेले ही वहाँ निवास किया-ये अद्भुत आकार और मनोहर वेष धारण करते रहे। शाक, मूल और फल-यही उनका भोजन करनेवाले तेजस्वी पुरुष कौन है। इनके हाथमें वीणा है था। वे सदा संतुष्ट रहते और सबमें समान दृष्टि रखते तथा मुखपर प्रसत्रता छा रही है। यह सोचते हुए वे उन थे। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, परम तेजस्वी नारदजीसे बोले-महाद्युते ! आप कौन ध्यान और समाधिके द्वारा आलस्यरहित हो सदा है ? और कहाँसे इस आश्रमपर पधारे है ? भगवन् ! विधिपूर्वक योगाभ्यास करते थे। उनके सारे पाप दूर हो इस पृथ्वीपर आपका दर्शन तो प्रायः दुर्लभ ही है। मेरे चुके थे वे वैदिक, तान्त्रिक तथा पौराणिक मन्त्रोंसे लिये जो आज्ञा हो, उसे बतानेकी कृपा कीजिये। सर्वेश्वर भगवान् विष्णुकी आराधना करते थे; अतः नारदजीने कहा-ब्रह्मन् ! मैं नारद हूँ। तुम्हे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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