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________________ कुछ प्रारम्भिक भक्त आत्म-साक्षात्कार होता है। मैं का विचार नष्ट हो जाता है, श्वास और जीवन के अन्य चिह्न विलीन हो जाते हैं। अह और प्राण का एक ही सामान्य स्रोत है। आप जो भी कार्य करें, अह की भावना मे रहित होकर करें अर्थात 'मैं यह काय कर रहा हूँ' इस भावना से रहित होकर करें। जब व्यक्ति इस अवस्था में पहुंच जाता है तब वह अपनी पत्नी को भी विश्व माता के रूप में समझने लगता है। सच्ची भक्ति आत्मा के सम्मुख अह का समपण है। शिवप्रकाशम् क्या मन पर विजय पाने का अन्य कोई माग नही है ? भगवान् मात्म-जिज्ञासा के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। अगर अन्य साधनो से मन को शान्त किया जाय तो यह थोड़ी देर के लिए शान्त रहता है और फिर यह प्रकट हो जाता है तथा अपने पहले क्रिया-कलाप में निमग्न हो जाता है। शिवप्रकाशम् समस्त सहज वृत्तियो और वासनाओ, जैसे कि आत्मसरक्षण की वृत्ति का कव नाश होगा ? भगवान् जितना अधिक आप आत्म-निमग्न होगे उतना अधिक ये वासनाएं जीण होती जायेंगी और अन्त में इनका सर्वथा लोप हो जायगा। शिवप्रकाशम् क्या वस्तुत उन सभी वासनाओ का उन्मूलन सभव है जो अनेक जन्मो मे हमारे मनों में प्रविष्ट हो चुकी हैं। ___भगवान् इस प्रकार के सन्देहों को कभी भी अपने मन में स्थान न दें बल्कि दृढ़ निश्चय के साथ आत्मा मे निमग्न हो जायं । अगर मन को निरन्तर आत्मा की ओर निर्देशित किया जाय तो इसका लय हो जाता है और यह आत्मा में परिवर्तित हो जाता है। जब आप किसी प्रकार का सन्देह अनुभव करें, इसकी व्याख्या करने का प्रयास न करें बल्कि यह जानने की चेष्टा करें कि वह कौन है जिसको यह सन्देह होता है। शिवप्रकाशम् व्यक्ति को यह आत्म-अन्वेषण कब तक करना चाहिए ? भगवान् जब तक आपके मन में विचारोत्पादक प्रवृत्ति का लेशमात्र भी है तब तक आत्म-अन्वेपण जारी रखें। जव तक शत्रु दुग पर अधिकार किये है वह उस पर आक्रमण जारी रखेंगे। अगर आप प्रत्येक को उनके बाहर निकलते ही मार दो तो अतत दुग का पतन हो जायगा। इसी प्रकार छ वार जव कोई विचार अपना सिर उठाये, आप इसे इस जिज्ञासा के साथ कुचल डालें। सारे विचारो को उत्पन्न होते ही कुचल देना चराग्य कहलाता है । इसलिए जब तक आत्म-साक्षात्कार नहीं हो जाता विचार आवश्यक है। निरन्तर और निर्वाध आत्म-चिन्तन अनिवाय है । शिवप्रकाशम् क्या यह ससार और इसमे जो कुछ घटित होता है,
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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