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________________ भक्त परन्तु मेरी यह उत्कट इच्छा है कि मैं एक मन्यासी के रूप में सभी आसक्तियो को छोड दूं और समार का परित्याग कर दू । भगवान् परित्याग का अथ वस्त्र-परिवर्तन या गृह-परित्याग से नहीं है। वास्तविक परित्याग तो इच्छाओ, आवेशो और आसक्तियो का परित्याग है। भक्त परन्तु भगवान् की हादिक भाव से भक्ति ससार-परित्याग के विना सम्भव नहीं है। भगवान् नही, जो वस्तुत ससार का परित्याग करता है, वह ससार मे निमग्न हो जाता है और अपने प्रेम की परिधि इतनी विस्तृत कर लेता है कि उसमे समस्त विश्व समा जाता है। गेरुए वस्त्र धारण करने के लिए गृहपरित्याग की अपेक्षा सावलौकिक प्रेम के रूप में भक्त की वृत्ति का वणन अधिक उपयुक्त होगा। भक्त घर पर प्रेम के बन्धन बहुत दृढ़ होते हैं। भगवान् जो व्यक्ति उस समय गृह-परित्याग करता है जब वह इसके लिए परिपक्व नहीं होता, वह केवल दूसरे बन्धन पैदा कर लेता है। भक्त क्या परित्याग आसक्तियो के तोडने का सर्वोत्तम साधन नही है ? भगवान् यह उस व्यक्ति के लिए हो सकता है जिसका मन पहले ही वन्वनो से मुक्त है। परन्तु आपने परित्याग के गभीर अर्थ को हदयगम नहीं किया सासारिक जीवन का परित्याग करने वाली महान् आत्माओ ने पारिवारिक जीवन के प्रति विरक्ति के कारण ऐसा नही किया बल्कि अपनी विशाल-हृदयता और समस्त मानव जाति तथा ससार के समस्त प्राणियो के प्रति प्रेम के कारण ऐसा किया है। भक्त पारिवारिक बन्धनों को कभी न कभी तो तोडना ही है, तो मैं उन्हे अभी से क्यो न तोड ताकि मेरा प्रेम सब के प्रति समान हो । भगवान् जब आप वस्तुत सब के लिए समान प्रेम का अनुभव करेंगे, जब आपका हृदय इतना विशाल हो जायगा कि उसमे समस्त सृष्टि समा जायगी तव आप निश्चित ही इस या उस वस्तु के परित्याग के सम्बन्ध में नहीं सोचेंगे, आप सासारिक जीवन से इस प्रकार पराछ मुख हो जाएंगे जिस प्रकार एक पका हुमा फल वृक्ष की शास्त्रा से अलग हो जाता है । आप यह अनुभव करेंगे कि सारा ससार आपका घर है। इसमे कोई आश्चय नही कि इस प्रकार के प्रश्न अक्सर पूछे जाते थे और वहतो को इन प्रश्नो के जो उत्तर मिलते थे, उनसे यह आश्चर्य मे पर जाते थे क्योरि भगवान् की धारणा परम्परागत दृष्टिकोण के विपरीत थी। यद्यपि युगो से चले या रहे आव्यात्मिक सत्यो में कभी भेद नहीं होता तथापि आध्यात्मिक गुरूजन युग की परिवर्तित परिस्थितियो के अनुरूप सत्य के साक्षात्कार को हा।
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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