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________________ रमण महर्षि भोजन बनाना प्रारम्भ किया और इस प्रकार आश्रम के जीवन मे एक नया युग प्रारम्भ हुआ। अपने छोटे पुत्र को आश्रम मे बुलाने की इच्छा से अलगम्माल ने एक भक्त को भेजा । उसने तिरूवंगहू मे अपना काम छोड दिया और तिरुवन्नामलाई मे रहने के लिए आ गया। पहले वह नगर मे ठहरा, अपने किसी मित्र के घर भोजन कर लेता और प्रतिदिन आश्रम जाता। उसने शीघ्र ही ससार परित्याग का निश्चय किया और निरजनानन्द स्वामी के नाम से गेरुए वस्त्र धारण कर लिये । स्वामी का भाई होने के कारण वह प्राय 'चिन्नास्वामी' या 'छोटे स्वामी' के नाम से विख्यात थे। कुछ समय तो वह प्रतिदिन भिक्षाटन के लिए नगर मे जाते थे परन्तु भक्तो को यह बात अच्छी नही लगी कि स्वामी के छोटे भाई शहर जाकर भिक्षा मांगें क्योकि आश्रम मे सब लोगो के लिए पर्याप्त भोजन था। अतत उन्हे आश्रम में रहने के लिए मना लिया गया। ऐसा प्रतीत होता था कि श्रीभगवान् पुन पारिवारिक जीवन मे आ गये हैं, उनके परिवार मे उनके सव भक्तजन सम्मिलित थे और वस्तुत वह कभीकभी उन सबको अपना परिवार कहकर पुकारा करते थे। इसी आभासी असगति के कारण श्रीभगवान् की माँ और उनका भाई उनके साथ रहने के लिए नही आये। एक वार शेषाद्रिस्वामी ने परिहास करते हुए इस ओर निर्देश किया था। एक दशक जो उन्हें मिलने के लिए मार्ग मे खडा हो गया था, ऊपर पहाड़ी पर रमणस्वामी के दर्शनो के लिए जाना चाहता था। उस दर्शक से शेषाद्रिस्वामी ने कहा, "हां, देखो ऊपर चले जाओ, वहाँ एक गृहस्वामी रहते हैं । वहाँ तुम्हारा केक से स्वागत किया जायगा।" शेषाद्रिस्वामी के परिहास का भाव यह है कि गृहस्थ की स्थिति साधु की स्थिति से निम्न समझी जाती है क्योकि साधु तो अपने को पूर्णत भगवान् की खोज मे लगा सकता है जब कि गृहस्थी को सासारिक धन्धे निपटाने होते हैं । घर और सपत्ति परित्याग को सत्यान्वेषण की दिशा में एक बहुत बडा कदम समझा जाता है। इसलिए बहुत से भक्त श्रीभगवान् से ससार-परित्याग के सम्बन्ध मे पूछा करते थे । श्रीभगवान् सदा इसे हतोत्साहित किया करते थे । नीचे के वार्तालाप से यह स्पष्ट हो जायगा कि परित्याग निवृत्ति नही अपितु प्रेम का विस्तार है। भक्त मेरी इच्छा है कि मैं अपना काम छोड दूं और सदा श्रीमगवान् के चरणो मे रहूँ। भगवान् भगवान् सदा आपके साथ हैं, आप मे हैं । आपकी आत्मा भगवान् है । आपको इसी का साक्षात्कार करना है।
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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