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________________ अरुणाचल ५३ 1 निर्भीकतापूर्वक स्वामी को सम्बोधित करते हुए अस्पृश्य जनोचित भाषा मे कहा, "तुम्हारा सत्यानाश हो। तुम इस तरह गरमी मे क्यो घूम रहे हो तुम शान्त होकर क्यो नही बैठते ?" अव श्रीभगवान् ने इस घटना की चर्चा अपने भक्तो से करते समय कहा, "यह साधारण औरत नही हो सकती । कौन जानता है, वह कौन थी ।" निश्चय ही किसी अछूत औरत को स्वामी से इस प्रकार बोलने का साहस न होता । भक्तो का यह कहना था कि यह निश्चय ही कोई अरुणगिरि का सिद्ध, अरुणाचल की आत्मा हो । तव से श्रीभगवान् ने पहाडी पर घूमना छोड दिया । जव श्रीभगवान् सवप्रथम तिरुवन्नामलाई गये, जैसा हमने पहले वणन किया है, वे कभी-कभी परमानन्द की अवस्था मे घूमने निकल पड़ते थे । लगभग १९१२ तक, जब कि उन्हें मृत्यु का अन्तिम और पूर्ण अनुभव हुआ, भ्रमण की उनकी यह आदत कुछ-कुछ वनी रही। एक दिन प्रात काल वे पलानी स्वामी, वासुदेव शास्त्री तथा अन्य भक्तजनो के साथ विरूपाक्ष कन्दरा से पचैयामान कामता के लिए चल पडे । वहाँ उन्होंने तैल स्नान किया । जब वह वापसी पर कच्छप शिला के निकट पहुँचे तब एकाएक उन्हें शारीरिक निवलता अनुभव होने लगी । बाद में उन्होने इस प्रकार इसका वर्णन किया " मेरे आगे का दृश्य लुप्त हो गया, मानो मेरी आँखो के आगे एक चमकीला सफेद परदा आ गया हो और मेरी आँखो को उसने ढक लिया हो । मैं इस क्रमिक प्रक्रिया को स्पष्टत देख सकता था । मेरे सामने एक रगमच था, मैं दृश्य का कुछ भाग स्पष्टत देख सकता था, जब कि शेष अग्रिम परदे से ढका था । यह इस प्रकार था मानो संरवीन (स्टीरियोस्कोप) मे किसी के नेत्रो के मागे स्लाइड आ गयी हो। इस प्रकार अनुभव करने के वाद, मैंने चलना बन्द कर दिया ताकि में कही गिर न पहुँ । जब यह साफ हो गया मैंने चलना शुरू कर दिया । जब दूसरी बार मेरी आंखो के आगे अँधेरा छा गया और मुझे कमजोरी महसूस होने लगी मैं एक शिला का सहारा लेकर तब तक खड़ा रहा जब तक मेरी आँखो के आगे से यह अँधेरा छँट नही गया । जब तीसरी वार ऐसा हुआ तो मैंने बैठ जाना ही उचित समझा इसलिए में शिला के पास बैठ गया । तब उस चमकीले सफेद पर्दे के कारण मेरा देखना विलकुल बन्द हो गया, चकराने लगा, खून का दौरा वन्द हो गया और सांस रुक गयी । मेरी सिर त्वचा नीली-काली पड गयी । यह मौत का रंग था। यह गहरा और गहरा होता गया । तथ्य तो यह है कि वासुदेव शास्त्री ने मुझे मृत समझ लिया, अपनी गोद मे ले लिया और मेरी मृत्यु का शोक मनाते हुए जोरजोर से रोना शुरू कर दिया ।
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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