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________________ ६१ कुछ प्रारम्भिक भक्त गणपति शास्त्री श्रीभगवान् के भक्तो मे गणपति शास्त्री अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। वह गणपति मुनि के नाम से विख्यात थे और सस्कृन मे आणु कविता करने के कारण उन्हें कान्यकान्त की उपाधि से विभूपित किया गया था। वह अत्यन्त योग्य और प्रतिभाशाली व्यक्ति थे । अगर उनमे महत्त्वाकाक्षा होती, तो वह आधुनिक लेखको और विद्वानो की अग्रिम पक्ति में स्थान पाते और अगर उनमे महत्त्वाकाक्षा का सवथा अभाव होता, तो वह महान् आध्यात्मिक शिक्षक की पदवी पाते, परन्तु वह इन दोनो के मध्य में रह गये । भगवान् की ओर उनका इतना अधिक झुकाव था कि उहे सफलता या यश की तनिक भी इच्छा नहीं थी, तो भी वह मानव-जाति की सहायता और उत्थान के लिए इतने अधिक चिन्तित थे कि वह 'मैं कर्ता हूँ', इस भ्रम से मुक्ति नही पा सके। सन् १८७८ में (श्रीभगवान के जन्म से एक वप पूर्व) गणपति शास्त्री के जन्म के समय उनके पिता बनारस में भगवान् गणपति की मूर्ति के सम्मुख बैठे हुए थे, उन्हें ऐसा दिखाई दिया कि भगवान की मूर्ति से निकलकर एक बालक उनकी ओर आ रहा है, इमलिए उन्होंने अपने वालक का नाम गणपति रम्बा । प्रथम पांच वप तक गणपति गूगे रहे, उन्हे मिरगी के दौरे आते रहे और उनमें प्रतिभाशाली वालक के चिह्न दृष्टिगोचर नहीं होते थे। इसके बाद रस्त-तप्त लोहे के स्पश द्वारा उनका उपचार किया गया और उन्होने तत्काल ही अद्भुत योग्यता का परिचय देना प्रारम्भ किया। दस वप की आयु तक वह सस्कृत मे काव्य-रचना करने लगे और उन्होने कई काव्यो तथा व्याकरणशास्त्र में पाण्डित्य प्राप्त करने के अतिरिक्त ज्योतिप का पचाग तैयार किया। चौदह वप की आयु मे वह पचकाव्य, सस्कृत छन्दशास्त्र और अलकारशास्त्र के मुख्य प्रन्यो में पारगत हो गये और उन्होने रामायण, महाभारत तथा कुछ पुराणो का अध्ययन समाप्त कर लिया। वह सस्कृत मे धाराप्रवाह भाषण कर सकते और लिग्न सकते थे। श्रीभगवान की तरह उनको स्मरणशक्ति अलौकिक थी। जो कुछ भी वह पढते या सुनते, वह स्मरण कर लेते। श्रीभगवान की तरह उनमे अष्टावधान की योग्यता थी, अर्थात वह एक समय विभिन्न विपयों की ओर ध्यान केन्द्रित कर सकते थे । प्राचीन ऋपियो की कथाओ का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा। उनके आदशचिह्नो पर चलने को भावना उनमे पैदा हुई । विवाह के तत्काल वाद अठारह वर्ष की आयु से, उन्होंने भारतवप का भ्रमण प्रारम्भ किया, पवित्र स्थानों के दशन किये, मन्त्र-साधना की और तपश्चर्या की। १९०० में वह बनिदया (वगाल) मे पण्डितो की एक मभा में सम्मिलित हुए। यहाँ आशु कविता तथा दापानिक तक-वितक मे अद्भुत प्रतिभा, प्रदशन के कारण उन्हें 'काव्य
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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