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________________ पहला सूत्र: विशेषदर्शिन आत्मभावभावनाविनिवृत्ति:। 'जब व्यक्ति विशेष को देख लेता है, तो उसकी आत्मभाव की भावना मिट जाती है। बद्ध ने चेतना की परम अवस्था को अनत्ता-स्व का न होना, अन-अस्तित्व कहा है। इसको समझाना बहुत कठिन है। बुद्ध ने कहा : छोड़ देने के लिए अंतिम इच्छा है-होने की इच्छा'। लाखों इच्छाएं होती हैं। यह सारा संसार और कुछ नहीं बल्कि चाही गई चीजें हैं, लेकिन बुनियादी इच्छा हैहोने की इच्छा। आधारभत इच्छा है अपने अस्तित्व का सातत्य बने रहना, कायम रहना, बना रहना। मृत्य सबसे बड़ा भय है; अंत में छोड़ने वाली इच्छा है-होने की इच्छा। इस सूत्र में पतंजलि कहते हैं : जब तुम्हारी सजगता पूर्ण हो गई है, जब विवेक, भेद करने की क्षमता उपलब्ध कर ली गई है, जब तुम साक्षी हो चुके हो, चाहे कुछ भी घटित होता हो तुम्हारे भीतर या तुम्हारे बाहर तुम इसके शुद्ध साक्षी हो गए हो।... अब तुम कर्ता न रहे, तुम बस देख रहे हो; बा पक्षी गीत गा रहे हैं.. .तुम देखते हो, भीतर रक्त परिसंचरित हो रहा है.. .तुम देखते हो; भीतर विचार चल रहे हैं.. .तुम देखते हो-तुम कहीं भी तादात्म्य नहीं करते। तुम नहीं कहते, मैं शरीर हूं तुम नहीं कहते, मैं मन हूं तुम कुछ भी नहीं कहते। तुम किसी वस्तु से तादात्म्य किए बिना बस देखते चले जाते हो। तुम–एक शुद्ध कर्ता बने रहते हो; तुमको बस एक ही बात स्मरण रहती है कि तुम द्रष्टा हो, साक्षी हो-जब यह साक्षित्व स्थापित हो जाता है, तब होने की इच्छा मिट जाती है। और जिस पल होने की इच्छा मिट जाती है, मृत्यु भी मिट जाती है। मृत्यु का अस्तित्व है, क्योंकि तुम बने रहना चाहते हो। मृत्यु का अस्तित्व है, क्योंकि तुम मरने को तैयार नहीं हो। मृत्यु का अस्तित्व है, क्योंकि तुम समग्र के विरोध में संघर्ष कर रहे हो। जिस क्षण तुम मरने को तैयार हो, मृत्यु अर्थहीन हो जाती है, अब यह संभव नहीं हो सकती है। जब तुम मरने को राजी हो, तो तुम मर कैसे सकते हो? मर जाने की, मिट जाने की उस तैयारी में ही मृत्यु की सारी संभावना का अतिक्रमण हो जाता है। धर्म का विरोधाभास यही है। जीसस कहते हैं. 'यदि तुम अपने आप से आसक्त होने जा रहे हो, तो तुम अपने आप को खो दोगे। यदि तुम अपने आप को पाना चाहते हो, तो आसक्त मत होओ।' वे लोग जो होने का प्रयास करते हैं, विनष्ट हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि कोई तुमको नष्ट करने के लिए वहां है; होने का तुम्हारा प्रयास ही विनाशक है, क्योंकि जिस क्षण यह विचार उठता है, मुझको बने रहना चाहिए, तुम समग्र के विरोध
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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