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________________ मुझसे आसक्त हो जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तब तुम अपना स्वयं का घर कब बनाओगे, और तुम अपना स्वयं का उद्यान कब बनाओगे, और कब तुम्हारे स्वयं के फूल खिलेंगे, और कब तुम्हारे स्वयं के हृदय के पक्षी गीत गाएंगे? नहीं, तब तो तुम उस नाव को जिसने तुम्हारी उस किनारे पर सहायता की थी ढोते फिरोगे। लेकिन तब यह दूसरा किनारा नष्ट हो गया है क्योंकि क्योंकि तुम अपने सिर पर नाव ढोते फिर रहे होओगे। दूसरे किनारे पर तुम नृत्य कैसे करोगे? उत्सव कैसे मनाओगे तुम? वह नाव एक सतत कारागृह बन जाएगी। जब मैं तुमसे स्वयं पर श्रद्धा करने को कहता हूं तो मैं बस यही कह रहा हूं कि मुझ पर जो एक विशिष्ट आबोहवा घट चुकी है, इसकी एक झलक पा लो आओ, और इस आबोहवा को तुमको घेर लेने दो; मुझको अपने हृदय में स्पंदित होने दो, मुझको अपने चारों ओर धड़कने दो; अपने अस्तित्व के गहनतम तल में मुझे तरंगित होने दो; मुझे अपने भीतर प्रतिध्वनित होने दो। मैं यहां एक गीत गा रहा हूं इसको गंजने दो ताकि तुम जान सको कि हां, गीत संभव है। बुद्ध विदा हो चुके हैं, जीसस भी यहां नहीं हैं यह स्वाभाविक है। जीसस को सुन पाना तुम्हारे लिए संभव नहीं है। तुम बाइबिल पढ़ सकते हो, यह बस किसी ऐसी बात का शब्द - चित्र खींचती है जो कहीं किसी समय में घटित हुई थी, लेकिन तुम इस पर विश्वास नहीं कर सकते। यह बस कोई पुराण कथा, एक कहानी हो सकती है। बुद्ध मात्र एक काव्यात्मक कल्पना हो सकते हैं, हो सकता है कि उनको कवियों ने रचा हो कौन जाने? क्योंकि जीवन में तुम्हारा ऐसे व्यक्ति से आमना-सामना नहीं होता। जब तक कि तुम किसी धार्मिक व्यक्ति के संपर्क में नहीं आते, धर्म कहीं एक स्वप्न जैसा बना रहेगा। यह कभी एक वास्तविकता नहीं बनेगा। यदि तुम ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आते हो जिसने सत्य का स्वाद ले लिया है, जो एक भिन्न संसार में और एक भिन्न आयाम में जी चुका है, जिसके लिए परमात्मा घट चुका है, और जिसके लिए परमात्मा मात्र कोई सिद्धात नहीं है, बल्कि श्वास-प्रश्वास की भांति क है, तब उस पर श्रद्धा करो, उसमें समा जाओ फिर हिचकिचाओ मत फिर साहस करो तब जरा निर्भीक हो जाओ। तब कायर मत बनो और द्वार के बाहर लुका-छिपी मत खेलते रहो, मंदिर में प्रवेश करो। निःसंदेह यह मंदिर तुम्हारे लिए आश्रय नहीं बनने जा रहा है तुमको अपना स्वयं का मंदिर निर्मित करना पड़ेगा क्योंकि परमात्मा की उपासना केवल तभी की जा सकती है जब तुमने अपना स्वयं का मंदिर निर्मित कर लिया हो। उधार के मंदिर में परमात्मा की उपासना नहीं की जा सकती है परमात्मा एक सृष्टा है और केवल सृजनात्मकता का सम्मान करता है और अपना स्वयं का मंदिर निर्मित करना आधारभूत सृजनात्मकता है। नहीं, उधार के मंदिरों से काम नहीं चलने वाला है। लेकिन मंदिर का सृजन किस भांति किया जाए? - पहली बात, यह विश्वास कर पाना करीब-करीब असंभव है कि कभी मंदिरों का अस्तित्व था। जीसस का अस्तित्व संदेहास्पद बना हुआ है, बुद्ध एक पुराण - कथा की भांति दिखाई पड़ते हैं, इतिहास जैसे नहीं, कृष्ण तो और भी स्वप्नों के संसार में हैं। इतिहास में तुम जितना पीछे लौटते हो उतनी ही अधिक बातें धूमिल होकर पुराण कथाओं में बदलती जाती हैं। यथार्थ पर कोई चिह्न शेष नहीं बचा।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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