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________________ जब मैं कहता हूं मुझ पर श्रद्धा करो, तो मेरा अभिप्राय बस यही है : बाहर मत खड़े रहो। यदि तुम मेरे इतने निकट आ गए हो, तो थोड़ा और पास आ जाओ। यदि तुम आ गए हो, तो भीतर आ जाओ । फिर मेरी आबोहवा को तुम्हें घेर लेने दो। वह तुम्हारे लिए एक अस्तित्वगत अनुभव बन जाएगा। मेरी आंखों में देखते हुए, मेरे हृदय में प्रविष्ट होते हुए, तुम्हारे लिए जीसस में अश्रद्धा कर पाना असंभव हो जाएगा। तब तुम्हारे लिए यह कहना कि बुद्ध मात्र एक पुराण - कथा हैं, असंभब होगा, लेकिन फिर भी मैं यही कहे चला जाऊंगा कि यदि बुद्ध आते हैं, रास्ते पर तुम्हें मिल जाते हैं, उनको मार दो। मेरे माध्यम से आओ, लेकिन वहां रुको मत अनुभव ग्रहण करो और अपने रास्ते चले जाओ। यदि अनुभव पुनः स्मृतियों में खो जाए और मंद पड़ जाए, तो जब तक मैं यहां उपलब्ध हूं दुबारा मेरे पास आ जाओ। एक और डुबकी मार लो, लेकिन लगातार यह स्मरण रखो कि तुमको अपना स्वयं का कुछ निर्मित करना है। केवल तभी तुम उसके भीतर रह सकते हो। मैं अधिक से अधिक तुम्हारे सामान्य जीवन से अवकाश का एक समय बन सकता हूं लेकिन मैं तुम्हारा जीवन नहीं बन सकता। अपना जीवन तुम्हें ही बदलना पड़ेगा। अब, मन बहुत चालाक है। यदि मैं कहता हूं मुझ पर श्रद्धा करो तो मन को यह कठिन लगता है। किसी और व्यक्ति पर श्रद्धा करना बहुत अंहकार - नाशक है। यदि मैं कहूं बस स्वयं पर श्रद्धा करो, तो मन को बहुत अच्छा लगता है लेकिन केवल अच्छा लगने से कुछ नहीं होता है। मैं तुमसे कहता हूं अपने आप में श्रद्धा रखो । यदि यह संभव है तब मुझ पर श्रद्धा करने की कोई आवश्यकता है। यदि यह संभव न हो, तब पहले विकल्प के लिए प्रयास करो मन सदा इसी खोज मे संलग्न रहता है कि किस भांति प्रत्येक वस्तु के माध्यम से अपने आप को और बलशाली बनाया जाए। मैं तुमको एक कहानी सुनाऊंगा। एक व्यक्ति किसी बड़े शहर में रहने लगा था, और करीब छह माह तक प्रत्येक रविवार को उसने अपने अनुकूल धार्मिक समुदाय पाने के लिए भिन्न-भिन्न चर्चों की धर्म-सभाओं में भागीदारी की। अंततः एक रविवार की सुबह बस वह चर्च में प्रविष्ट हो ही रहा था कि उसने श्रद्धालुओं को धर्मोपदेशक के साथ-साथ बोलते हुए सुना : हमने उन कामों को बिना किए छोड़ दिया है जो हमें करना चाहिए थे, और हम उन कामों को कर चुके हैं जो हमे नहीं करना चाहिए थे। वह अपने आप से फुसफुसाते हुए, अंततः मुझको मेरा ठिकाना मिल ही गया, राहत और संतोष की श्वास लेकर वहीं पर बैठ गया। तुम बस किसी ऐसी चीज को पाने का प्रयास कर रहे हो जो तुम्हें बाधा न पहुंचाए। बल्कि इसके विपरीत यह तुम्हारे पुराने मन को सबल बनाए। यह तुमको जैसे तुम हो वैसे ही सशक्त करे। मन का सारा प्रयास यही है : अपने-आप को तैयार करना। तुमको इसके बारे में मननशील होना पड़ेगा । जो कहा गया उसको नहीं, वरन जो यह सुनना चाहता है, मन की उसी को सुनने की प्रवृति है।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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