SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धोखा करने जा रहा हो? तुम भविष्य को कैसे देख सकते हो? धोखा भविष्य में होगा, यदि यह घटित होता है, या ऐसा नहीं होता है, यह भी भविष्य के गर्भ में है-और श्रद्धा को अभी और यहीं होना है। और कभी-कभी कोई बहुत भला आदमी भी तुम्हारे साथ धोखा कर सकता है। किसी भी पल एक साधु भी पापी बन सकता है और कभी-कभी एक बहुत बुरा व्यक्ति बहुत श्रद्धेय बन सकता है। पापी भी आखिरकार साधु बन जाते हैं लेकिन यह बात भविष्य में है और तुम अगर अपनी श्रद्धा के लिए शर्त रखते हो तो तुम श्रद्धा नहीं कर सकते। श्रद्धा बेशर्त होती है। यह बस इतना कहना है, मेरे पास वह गुण है जो श्रद्धा करता है। अब यह असंगत है कि मेरी श्रद्धा के साथ क्या होता हैइसको सम्मान मिलता है या नहीं, इसे धोखा मिलता है या नहीं। यह बात तो जरा भी नहीं है। श्रद्धा को श्रद्धा के पात्र से कुछ भी लेना-देना नहीं है, इसका संबंध तो तुम्हारी भीतरी गुणवत्ता से हैं- क्या तुम श्रद्धा कर सकते हो? यदि तुम श्रद्धा कर सकते हो, तो निःसंदेह पहली श्रद्धा तुम पर घटि होगी, तुम अपने आप पर श्रद्धा करते हो। पहली बात तुम्हारे अस्तित्व के अंतर्तम केंद्र पर घटित होनी चाहिए। यदि तुम स्वयं पर श्रद्धा नहीं करते हो तो सभी कुछ बहुत दूर है। फिर तो मैं तुमसे बहुत दूर हूं। तुम मुझ पर श्रद्धा कैसे कर सकते हो न तुमने अपने आप पर श्रद्धा नहीं की है जो इतना निकट है। और तुम मेरे ऊपर श्रद्धा कैसे कर सकते हो यदि तुम अपने आप पर श्रद्धा नहीं करते? यदि तुम अपने आप पर श्रद्धा नहीं करते, तो चाहे तुम जो कुछ भी करो, एक गहरी अश्रद्धा, एक अंतरधारा की भांति जारी रहेगी। यदि तुम अपने आप पर श्रद्धा करते हो, तो तुम पूरे जीवन पर श्रद्धा करते हों - केवल मुझमें नहीं, क्योंकि केवल मैं ही क्यों? श्रद्धा सभी को समाहित करती है। श्रद्धा का अर्थ है, जीवन में वह सभी कुछ जो तुम्हारे चारों ओर है, वह सभी कुछ जिससे तुम आए हो, वह सभी कुछ जिसमें एक दिन तुम विलीन हो जाओगे, इस सभी में श्रद्धा रखना। श्रद्धा का अर्थ बस यही है कि तुमने संदेह के पागलपन को समझ लिया है, कि तुम संदेह की पीड़ा को समझ चुके हो, कि तुम उस नरक को समझ गए हो जो संदेह निर्मित करता है। तुमने संदेह को जान लिया है और इसको जान कर तुमने इसे त्याग दिया है। जब संदेह मिट जाता है तब श्रद्धा का उदय होता है। यह तुम्हारे भीतर के रूपांतरण की, तुम्हारी अभिरुचि, तुम्हारी शैली की कुछ चीज है। श्रद्धा किसी विरोधाभास को नहीं जानती। प्रश्नकर्ता पूछता है यह है अपने आप में श्रद्धा करने और आपमें श्रद्धा रखने में विरोधाभास ।' यदि यही विरोधाभास है तो अपने आप पर श्रद्धा करो, यदि तुम स्वयं पर श्रद्धा कर सकते हो तो और किसी की आवश्यक्ता नहीं है। तब तुम अपनी श्रद्धा में गहराई से जड़ें जमाए हुए हो, और जब कोई वृक्ष पृथ्वी में गहराई से जड़ें जमाए हुए होता है तो यह अशांत आकाश में अपनी शाखाएं फैलाता चला जाता है। जब इसने अपनी जड़ें भूमि में जमा ली हैं, तो यह आकाश पर श्रद्धा कर सकता है। जब वृक्ष ने भूमि में जड़ें नहीं जमाई हैं तो यह आकाश पर श्रद्धा नहीं कर सकता है, तब यह सदैव भयभीत रहता है, तूफान से भयभीत, वर्षा से भयभीत, धूप से डरा हुआ, हवा से भयभीत, हर बात से
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy