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________________ भयभीत। यह भय जड़ों से आ रहा है। वृक्ष को पता है कि उसकी जड़ें पूर्णत: नहीं जमी हैं। कोई जरा सी दुर्घटना और वह विदा हो जाएगा। वह विदा हो ही चुका है। ऐसा जड़-विहीन, केंद्र-रहित जीवन जरा भी जीवन नहीं है। यह मात्र एक धीमा आत्मघात है। इसलिए यदि तुम अपने आप पर भरोसा करते हो तो मेरे बारे में सभी कुछ भूल जाओ। प्रश्न उठाने तक की आवश्यकता नहीं है। लेकिन तुम जानते हो और मैं जानता हूं कि तुम्हारी स्वयं पर श्रद्धा नहीं है। मन एक बहुत चालाकी का उपाय निर्मित कर रहा है। मन कह रहा है, किसी पर श्रद्धा मत करो, अपने आप पर श्रद्धा करो, और तुम अपने आप पर श्रद्धा कर नहीं सकते। इसीलिए तुम यहां हो। वरना तुम यहां क्यों होते? जिस व्यक्ति को स्वयं पर श्रद्धा हो उसको कहीं जाने की जरूरत नहीं है, किसी सदगुरु के पास जाने की आवश्यकता नहीं है, सीखने के लिए कहीं-जाने की आवश्यकता नहीं है। जीवन तुम तक लाखों ढंगों से आ रहा है : कहीं और जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम जहां कही भी हो सत्य घटित हो जाएगा, लेकिन तुम अपने आप पर श्रद्धा नहीं करते हो। और जब मैं कहता हूं मुझ पर श्रद्धा करो, तो यह तुमको श्रद्धा करने में सहायता देने का एक उपाय मात्र है। तुम स्वयं पर श्रद्धा नहीं कर सकते हो? -ठीक है, मुझ पर श्रद्धा कर लो। संभवत: मुझ पर श्रद्धा करना तुमको श्रद्धा का स्वाद दे देगा तब तुम अपने ऊपर श्रद्धा कर सकते हो। सदगुरु और कुछ नहीं वरन तुम्हारे स्वयं पर आने का एक लंबा मार्ग है, क्योंकि तुम निकटतम रास्ते से नहीं आ सकते हो। अत: तुमको थोड़ा लंबा रास्ता अपनाना पड़ेगा। लेकिन सदगुरु के दवारा तुम अपने आप पर आते हो। यदि तुम मुझ पर अटक जाते हो तब मैं तुम्हारा शत्रु हूं तब मैं तुम्हारे लिए सहायता नहीं बना हूं। तब मैं तुम्हें प्रेम नहीं करता, तब मुझमें तुम्हारे प्रति कोई करुणा नहीं है। यदि मुझमें जरा भी करुणा है, तब धीरे- धीरे मैं तुमको तुम्हारी ओर वापस मोड़ दूंगा। इसीलिए मैं कहे चला जाता हूं यदि मार्ग पर तुम्हारा बुद्ध से मिलन होता है, तो उनको मार डालो। यदि तुम मुझसे आसक्ति आरंभ कर देते हो, तो मुझको तुरंत छोड़ दो। मुझे मार दो, मेरे बारे में सभी कुछ भूल जाओ। लेकिन तुम्हारा मन कहेगा, जब आसक्त हो जाने का इतना भय है, तो बेहतर यही है कि यात्रा को कभी आरंभ ही न किया जाए। तब तुम आत्म-अश्रद्धा में बने रहते हो। मैं तो बस तुमको श्रद्धा का स्वाद लेने का एक अवसर प्रदान कर रहा हूं। जब मैं कह रहा हूं कि सदगुरु से आसक्त मत हो, तो मुझको सुनते समय तुम्हारे अहंकार को बहुत अच्छा अनुभव होने लगता है। यह कहता है, बिलकुल सच है। मुझे क्यों किसी पर श्रद्धा करना चाहिए? मुझको किसी के प्रति समर्पण क्यों करना चाहिए? सही है, यही उचित बात है! यही तो है जो जे. कृष्णमूर्ति के शिष्यों के साथ घटित हो गया है। चालीस, पचास वर्षों से वे सिखा रहे हैं? और ऐसे अनेक लोग हैं जिन्होंने अपने पूरे जीवन भर उनको सुना है और कुछ भी नहीं घटा है क्योंकि वे जोर दिए चले जाते हैं कि न कोई सदगुरु है, न कोई शिष्य है। वे तुमको तुम्हारे ऊपर फेंकते चले जाते हैं इससे पहले ही कि तुम श्रद्धा का स्वाद ले पाओ, वे तुमको तुम्हारे ऊपर फेंकते चले जाते हैं। इसके
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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