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________________ चौथा प्रश्न: परस्पर निर्भरता एक उत्तम अवधारणा है, किंतु जब आप हम सभी को पूर्ण स्वार्थी होने के लिए प्रोत्साहित करते है तब यह किस भांति संभव है? पहली बात, परस्पर निर्भरता उत्तम नहीं है, और यह कोई अवधारणा भी नहीं है। यह उत्तम तो जरा भी नहीं है। स्वनिर्भरता उत्तम अनुभव होती है, परनिर्भरता बहुत, बहुत कड्वी मालूम देती है; परस्पर निर्भरता न तो उत्तम है और न कड्वी। यह बहुत संतुलन बनाने वाली चीज है; न इस ओर और न उस ओर। यह किसी ओर नहीं झुकती, यह एक प्रशांति है। और यह कोई अवधारणा नहीं है, यह एक वास्तविकता है। इसी भांति है यह। जीवन को जरा देखो तो, और तुम्हें कभी को वस्तु न मिलेगी जो परस्पर निर्भर नहीं है। प्रत्येक वह वस्तु जो अस्तित्व में है परस्पर निर्भरता के सागर में ही उसका अस्तित्व है। यह कोई अवधारणा नहीं है, यह कोई सिद्धांत नहीं है। तुम बस सारे सिद्धांतों, सारे पूर्वाग्रहों को छोड़ दो और जीवन को देखो। एक छोटे से वृक्ष को, एक गुलाब की झाड़ी को देखो और तुम देखोगे कि उस में सारा अस्तित्व समाहित हो गया है। पृथ्वी द्वारा यह सारे अस्तित्व से संबंधित है। पृथ्वी के बिना यह वहां न होती। में श्वास लेती रहती है, यह वायमंडल से संबंधित है। सर्य से इसे ऊर्जा मिलती रहती है। गुलाब का गुलाबपन सूर्य के कारण है, और ये बहुत स्पष्ट दीखने वाली बाते हैं। वे लोग जो इस मामले में गहरी छान–बीन करने के लिए कठिन परिश्रम कर रहे हैं, उनका कहना है कि कुछ अदृश्य प्रभाव भी पड़ते हैं। उनका कहना है कि केवल यही बात नहीं है कि सूर्य गुलाब को ऊर्जा दे रहा है, क्योंकि जीवन में कुछ भी एकतरफा नहीं हो सकता। वरना यह बहुत अन्यायपूर्ण जीवन होगा। गुलाब लेता जा रहा है और कुछ दे नहीं रहा है। नहीं, ऐसा होना ही चाहिए कि गुलाब भी सूर्य को कुछ दे रहा हो। गुलाब के बिना सूर्य भी किसी बात से चूक जाएगा। इसकी खोज अभी भी विज्ञान द्वारा की जानी शेष है, लेकिन गुह्य विज्ञान वादियों ने सदैव अनुभव किया है कि जीवन एक आदान-प्रदान है। यह एकपक्षीय नहीं हो सकता है, अन्यथा सारा संतुलन खो जाएगा। गुलाब अवश्य ही कुछ दे रहा होगा, शायद एक विशेष आह्लाद। निश्चित रूप से यह वायु को सुगंध देता है, और तय बात है कि यह कुछ सृजनात्मकता, पृथ्वी के लिए सृजनात्मक होने का एक अवसर अवश्य प्रदान करता है। इसके माध्यम से पृथ्वी अवश्य ही प्रसन्नता का अनुभव कर रही होगी कि उसने एक गुलाब का सृजन किया है। यह अवश्य ही परिपूर्णता अनुभव कर रही होगी। पृथ्वी को एक गहरी परितृप्ति और संतुष्टि की अनुभूति अवश्य हो रही होगी।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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