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________________ प्राकृतिक लयबद्धता को भंग कर दोगे। यह स्वाभाविक रूप से जारी रहती है, तुम्हें बीच में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। और बोध को इतना स्वाभाविक हो जाना चाहिए.. .केवल तब ही यह संभव है; तुम सो रहे हो तब भी, बोध का प्रकाश सतत है, प्रदीप्त है, ज्योति जलती रहती है-जब तुम गहन निद्रा में हो तब भी। और प्रश्न के बारे में अंतिम बात, तार्किक समझ के क्षीण होने की पृष्ठभूमि में भी आपके प्रति श्रद्धा अगाध है। तार्किक समझ तो समझ जरा भी नहीं है। यह नाम का भ्रम है। तर्क के माध्यम से व्यक्ति कभी कुछ नहीं समझता। व्यक्ति को जो अनुभव होते हैं बस वह उन्हीं को समझता है। तर्क एक झूठ है। यह तुम्हें भ्रामक अनुभूति देता है कि हां, तुम समझ चुके हो। केवल अनुभवों के माध्यम से ही व्यक्ति समझता है, केवल अस्तित्वगत अनुभूति के माध्यम से ही समझ संभव है। उदाहरण के लिए, यदि मैं प्रेम के बारे में बात करता हूं तुम इसको तार्किक रूप से समझ लेते हो, क्योंकि तुम भाषा जानते हो, तुम्हें शब्द-विज्ञान की जानकारी है, तुम्हें शब्दों का अर्थ पता है, तुम वाक्यों की संरचना से परिचित हो, और तुम्हें इसके लिए प्रशिक्षित क्रिया गया है, इसलिए तुम समझ जाते हो कि मैं क्या कह रहा हूं; लेकिन तुम्हारी समझ प्रेम के बारे में होगी, यह प्रेम की बिलकुल ठीक समझ नहीं होगी। यह प्रेम के बारे में होगी, यह प्रत्यक्ष समझ नहीं होगी। और प्रेम के बारे में तुम चाहे कितने ही तथ्य और सूचनाएं एकत्रित करते चले जाओ, तुम इस संकलन के माध्यम से कभी प्रेम को जानने में समर्थ नहीं हो सकोगे। तुम्हें प्रेम में उतरना पड़ेगा, तुम्हें इसका स्वाद लेना पड़ेगा, इसमें विलीन होना पड़ेगा, साहस करना होगा, केवल तब तुम प्रेम को समझ पाओगे। तार्किक समझ तो बस एक बहुत उथली समझ है। और अधिक अस्तित्वगत बनो। यदि तुम प्रेम के बारे में जानना चाहते हो, तो पुस्तकालय में जाने और दूसरों ने प्रेम के बारे में क्या कहा हुआ है उनका मत जानने के स्थान पर प्रेम में उतर जाना उत्तम है। यदि तुम ध्यान करना चाहते हो, पुस्तकों से ध्यान के बारे में सब कुछ सीखने के बजाय सीधे ही ध्यान में जाओ, इसका अनुभव लो, इसका आनंद लो, इसमें प्रवेश करो, इसको अपने चारों ओर घटने दो, इसे अपने भीतर घटने दो, तभी तुम जान लोगे। तुम बिना नृत्य किए ही कैसे जान सकते हो कि नृत्य क्या है? इसे पुस्तकों के द्वारा जानना असंभव है। यहां तक कि किसी नर्तक को नृत्य करते हुए देख कर जानना भी काफी कठिन है, तब भी यह जानना नहीं है, क्योंकि तुम इसका बाह्य रूप देखते हो, बस शरीर की हलचल। तुम नहीं जान सकते कि नर्तक के भीतर क्या घट रहा है? उसमें कैसी लयबद्धता उत्पन्न हो रही है? कैसी चैतन्यता, कैसा बोध, कैसा मणिभीकरण, कैसा संकेंद्रण उसमें निर्मित हो रहा है? तुम इसे देख नहीं सकते, तुम इसका
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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