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________________ अनुमान नहीं लगा सकते। बाहर से यह उपलब्ध नहीं है, और तुम नर्तक के भीतरी संसार में प्रवेश नहीं कर सकते। वहां का एकमात्र उपाय है-नर्तक बन जाना है। जो कुछ भी सुंदर, गहन और श्रेष्ठ है उसे जीना ही पड़ता है। श्रद्धा जीवन की श्रेष्ठतम बातों में से एक है। प्रेम से भी श्रेष्ठ; क्योंकि प्रेम घृणा को जानता है। श्रद्धा को इसके बारे में कुछ भी नहीं पता। प्रेम अभी भी द्वैत में है, घृणा का भाग छिपा रहता है, यह अभी छूट नहीं पाया है। तुम एक क्षण में ही अपने प्रिय से घृणा कर सकते हो। कुछ भी इसका कारण बन सकता है और घणा वाला भाग ऊपर आ जाता है और प्रेम वाला भाग नीचे चला जाता है। प्रेम में यह केवल आधा भाग ही है जिसे तुम प्रेम कहते हो, बस सतह के ठीक नीचे घृणा सदैव प्रतीक्षारत रहती है कि छलांग लगा कर तुम पर कब्जा जमा सके। और यह तुम्हारे ऊपर हावी हो जाती है। प्रेमी लड़ते रहते हैं, सतत संघर्ष। किसी व्यक्ति ने प्रेम के बारे में एक पुस्तक लिखी है, उसका शीर्षक सुंदर है दि इंटीमेट एनिमी, अंतरंग शत्रु। प्रेमी शत्रु भी है। किंतु श्रद्धा प्रेम से श्रेष्ठतर है, यह अद्वैत है। इसे घृणा का जरा भी पता नहीं है। यह किसी ध्रुवीयता, किसी विपरीत को नहीं जानती है। यह बस एक ही है। यह शुद्धतम प्रेम है-घृणा से परिशुद्ध किया गया प्रेम, प्रेम जिसने घृणा के भाग को पूर्णत: त्याग दिया है, प्रेम जो खट्टे अनुभव, कटु अनुभव में नहीं बदल सकता, प्रेम जो लगभग अपार्थिव, दूसरे संसार का हो चुका है। अत: केवल वे ही, जो प्रेम करते हैं, श्रद्धा कर सकते हैं। यदि तुम प्रेम और श्रद्धा से बचना चाहते हो, तो तुम्हारी श्रद्धा बहुत निम्न स्तर की होगी, क्योंकि यह अपने साथ घृणा वाला भाग सदैव लिए हुए होगी। तुम्हें पहले अपनी ऊर्जा को प्रेम में से गुजारना होगा, ताकि तुम प्रेम और घृणा के द्वैत के प्रति बोधपूर्ण हो सको। तब वह हताशा होगी जो घृणा वाले भाग से आती है, फिर अनुभव के माध्यम से एक समझ का जन्म होगा और तब तुम घृणा वाले भाग को त्याग सकते हो। तभी शुद्ध प्रेम, परम सार, शेष रहता है। पुष्प भी वहां नही होता, बस सुगंध मात्र होती है, तब तुम श्रद्धा में ऊर्ध्वगमन करते हो। निःसंदेह इसका तार्किक समझ से कुछ भी लेना देना नहीं है। वास्तव में तो तार्किक समझ जिस मात्रा में खोती है उतनी ही श्रद्धा उत्पन्न होगी। एक अर्थ में श्रद्धा अंधी और एक अर्थ में श्रद्धा दृष्टि की एक मात्र सुस्पष्टता है। यदि तुम तर्क से सोचो तो श्रद्धा अभी दिखेगी। बुद्धिवादी सदैव श्रद्धा को अंधा कहेंगे। यदि तुम श्रद्धा को अनुभव के माध्यम से देखो तो तुम हंसोगे, तुम कहोगे, मुझे पहली बार अपनी 'आंखें उपलब्ध हुई हैं। तो वहां श्रद्धा ही एकमात्र सुस्पष्टता है। दृष्टि, क्रोध और घृणा के किसी बादल के बिना अत्यंत पारदर्शी, नितांत निर्मल हो जाती है।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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