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________________ नहीं हो सकते हैं। अकेले में व्यक्ति का सर चकराता है। भीड़ के साथ, इस ओर, उस ओर, सामने, पीठ पीछे, चारों तरफ लोग, व्यक्ति को बिलकुल ठीक लगता है। इतने सारे लोग जा रहे हैं; वे ठीक दिशा में ही जा रहे होंगे। और प्रत्येक व्यक्ति यही सोच रहा है। कोई नहीं जानता कि वे कहां जा रहे हैं। वे जा रहे हैं क्योंकि सारी भीड़ जा रही है। और यदि तुम प्रत्येक व्यक्ति से निजी तौर पर पूछो, क्या तुम ठीक दिशा में जा रहे हो? वह कहेगा, मुझे नहीं पता, क्योंकि सारा संसार जा रहा है, इसीलिए मैं जा रहा हूं। यहां पर मेरा सारा प्रयास तुम्हें सामूहिक मन से बाहर लाने के लिए तुम्हें एक अविभाजित व्यक्तित्व बनाने में सहायता देने के लिए है। आरंभ में तुमको ऊहापोह का सामना करना पड़ेगा। और गहरी श्रद्धा की आवश्यकता होगी, आत्यंतिक श्रद्धा की आवश्यकता पड़ेगी। अन्यथा तुम सामूहिक मन से बाहर तो आ सकते हो, लेकिन हो सकता है कि तुम व्यक्तिगत मन में न आ सको, तब तुम पागल हो जाओगे। यही तो खतरा है। श्रद्धा के बिना ध्यान में जाना खतरनाक है। मैं तुम्हें इसमें जाने के लिए नहीं कहूंगा, मैं तुमसे कहूंगा कि सामान्य रहना बेहतर है, चाहे सामान्य रहने का कुछ भी अर्थ हो। समाज के साथ समायोजित होकर रहो। लेकिन अगर वास्तव में तुम एक महत्, महानतम अभियान पर जाने के लिए तैयार हो तो श्रद्धा करो और तब ऊहापोह के लिए प्रतीक्षा करो। तुम जितना अधिक सजग हो जाते हो, तो नि:संदेह तुम इसके प्रति कम बोधपूर्ण होते हो। क्योंकि कोई जरूरत नहीं है। सजग होना पर्याप्त है। सजग होने का बोध एक तनाव बन जाएगा। आरंभ में ऐसा ही है। तुम कार चलाना सीखना शुरू करते हो, निःसंदेह तुम ज्यादा परेशान होते हो, तुम्हें बहुत सी चीजों का खयाल रखना होता है - पहिया, गियर, क्लच, एक्सीलेरेटर, ब्रेक, सड़क, और यदि तुम्हारी पत्नी पिछली सीट पर बैठी हो.... व्यक्ति को अत्याधिक होशपूर्ण होना पड़ता है, क्योंकि बहुत सारी चीजों को एक साथ सम्हालना पड़ता है। आरंभ में यह करीब-करीब असंभव ही प्रतीत होता है। फिर क्रमश: हर समस्या मिट जाती है, तुम आराम से कार चलाते रहते हो, तुम किसी मित्र से बात कर सकते हो, तुम रेडियो सुन सकते हो, तुम कोई गाना गा सकते हो या तुम ध्यान कर सकते हो और फिर भी वहां कोई समस्या नहीं होती, अब ड्राइविंग एक सहज स्फूर्त घटना बन चुकी है तुम इसको जानते हो, अत: अब इसके प्रति आत्म- चेतन होने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब तुम ध्यान करते हो तो ठीक यही घटता है। आरंभ में तुम्हें चेतना के प्रति बोधपूर्ण होना पड़ता है। इससे एक तनाव, एक थकान आती है। धीरे- धीरे, जैसे- जैसे होश प्रगाढ़ होता है तब इसके प्रति सजग रहने की कोई आवश्यकता नहीं रहती है, यह अपने से ही श्वसन क्रिया की भांति होता रहता है, तुमको इसके प्रति सजग रहने की कोई आवश्यकता नहीं, यह स्वतः होता है। वास्तव में तो ध्यान के बाद की अवस्थाओं में यदि तुम अपनी जागरुकता को लेकर बहुत अधिक चिंतित होते हो, तो यह एक अवरोध होगा, जैसे कि यदि तुम अपनी श्वास प्रक्रिया के प्रति सजग हो जाओ तो तुम तुरंत ही इसकी
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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