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________________ स्वयं से बोलता चला जाता है। मन स्वयं के ही चक्कर में, स्वयं के ही जंजाल में फंसता चला जाता है, और स्वयं से ही बोले चला जाता है। इन तीन वर्षों में, वे तीनों ही नए शिष्य स्वयं से भीतर ही भीतर बातचीत करते रहे। ऊपर से देखने पर तो, सतह पर तो सब कुछ बिलकुल शांत और मौन दिखाई पदूता है, लेकिन गहरे में ऐसा नहीं था। इसलिए जब भी तुम तैयार होते हो. और तुम कोई निर्णय नहीं ले सकते, यह बात तुम्हारे निर्णय के लिए नहीं छोड़ी जा सकती है। जो लोग उसके लिए तैयार हैं, उन्हें कुंजियां दे दी गयी हैं; और जो तैयार होने को हैं, उनके लिए कुंजियां सदा तैयार ही हैं। वस्तुत: एक क्षण भी खोया नहीं जाता है। जिस क्षण तुम तैयार होते हो, तत्क्षण, उसी समय कुंजी दे दी जाती हैं। वह जो कुंजी है, वह कोई वस्तु नहीं है कि मैं तुम्हें बुलाकर तुम्हारे हाथ में पकड़ा दूं, उसका तो हस्तांतरण ही हो सकता है -जब तुम मेरे साथ लयबद्ध हो जाते हो, मेरी तुम्हारी धड़कन इतनी एक हो जाती है कि तुम्हें किन्हीं कुंजियों की भी कोई फिकर नहीं रहती, तब तो तुम सब कुछ मेरे ऊपर ही छोड़ देते हो। यही तो है समर्पण। तुम कहते हो, 'जब भी – अगर कभी आपको ठीक लगे, तो मैं तैयार हूं। अगर आपको लगे कि अभी समय नहीं आया है, तो मैं अनंत - अनंत समय तक प्रतीक्षा करने के लिए तैयार हैं। अगर यह नहीं भी घटती है तो कोई बात नहीं।' केवल उसी समग्र स्वीकार भाव में, तुम मेरे प्रति सच में खुले होते हो, अन्यथा तो तुम मेरा उपयोग करना चाहते हो। तुम मेरा उपयोग नहीं कर सकते। मैं तुम्हारे लिए उपलब्ध हूं, लेकिन फिर भी तुम मेरा उपयोग नहीं कर सकते। तुम तो बस मेरे प्रति खुले, ग्रहणशील हो सकते हो। और जब तुम इतने संतुष्ट और संतृप्त हो जाओगे, वह सभी बाहरी संतुष्टियों और तृप्तियों से अलग होगी। लेकिन उसके लिए चाहिए अनंत धैर्य, एक शून्य प्रतीक्षा। अगला प्रश्न भी कुछ इसी तरह का है: भगवान अपने पिछले एक प्रवचन में आपने यह स्वीकार किया है कि आप अपनी ओर से साधकों को आत्मा की अज्ञात ऊंचाइयों की ओर ले जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं आगे आपने कहा है, मैं ऐसे लोगों की प्रतीक्षा में हूं जो आत्मा के अज्ञात शिखरों तक के लिए किसी भी तरह के प्रयोग करने के लिए तैयार हैं। जब से मैने आपके ये वचन हैं आपकी इस का सामना करने के लिए मैं स्वयं को तैयार कर रहा हूं व्यक्तिगत रूप से आपके दर्शन करते हुए जब मैने यह स्वीकार किया कि मैं अपनी ओर से तैयार हूं तब आपने बताया कि आप उस समय तैयार नहीं। आपके वक्तव्य में यह विरोधाभास क्यों है? कृपया मेरी शंकाओं का समाधान करें।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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