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________________ तीन नए-नए दीक्षित हुए शिष्य ट्रापिस्ट मानेस्ट्री में आए। एक वर्ष के बाद वे सुबह के नाश्ता के लिए बैठे। मठ का धर्माध्यक्ष उनमें से एक नए शिष्य से बोला: 'भाई पाल, तुम पूरे एक साल से हमारे साथ हो और तुमने मौन रहने का अपना वचन पूरा किया है। तुम अगर चाहो तो अब बोल सकते हो। क्या तुम्हें कुछ कहना है?' 'हां, आदरणीय मठाधीश, मुझे यह नाश्ता अच्छा नहीं लगता।' 'ठीक है, शायद हम इस बारे में कुछ न कुछ करेंगे।' इस बीच कुछ भी नहीं किया गया, मौन का एक वर्ष और बीत गया। एक बार फिर वे नाश्ते की मेज पर मिले और मठाधीश ने दूसरे युवा शिष्य से पूछा: 'भाई पीटर, मैं दो वर्ष तक तुम्हारे शांत और मौन रहने के लिए तुम्हारी प्रशंसा करता हूं। अगर तुम्हारी इच्छा हो तो अब तुम बोल सकते हो। क्या तुम्हें कुछ कहना है?' 'हां, धर्माध्यक्ष। मैं तो नाश्ते में कुछ भी गलत नहीं देखता।' तीसरा वर्ष बीत गया, मौन का एक और वर्ष। फिर मठाधीश ने तीसरे नए शिष्य से पूछा : 'भाई स्टीफन, तुमने जो पूरे तीन वर्षों तक मौन –शांत रहने का वचन पूरा किया उसके लिए मैं तुम्हारी बहुत सराहना करता हूं। अगर तुम्हारी इच्छा हो तो अब तुम कुछ बोल सकते हो। क्या तुम्हें कुछ कहना है? 'हां धर्माध्यक्ष, मुझे कहना है। मैं नाश्ते के लिए लगातार चलने वाले इस झगड़े -झंझट को सहन नहीं कर सकता।' उनके वे तीन वर्ष सुबह के नाश्ते को लेकर ही नष्ट हो गए, और मन की गहराई में कहीं यह समस्या बनी ही रही। उन तीनों ने उत्तर अलग-अलग ढंग से दिए, लेकिन वे तीनों जुड़े एक ही बात से हैं। उनके उत्तरों की भिन्नता केवल सतही है। कहीं गहरे में वे सब उसी से ग्रस्त हैं। तुम केवल तभी तैयार हो सकते हो जब सारी ग्रस्तताएं समाप्त हो जाएं। बाहर से मौन हो जाना बहुत आसान है, लेकिन भीतर का बोलना तो जारी ही रहता है। तब केवल बाहर से न बोलना मौन नहीं है; ऐसा मौन तो दिखावे का मौन है। सच तो यह है कि जो लोग बाहर से मौन होते हैं, बातचीत नहीं करते हैं, तब उनका मन अधिक बोलता रहता है। क्योंकि वैसे तो वे दूसरों के साथ बातचीत कर लेते हैं, तो मन का प्रवाह बाहर निकल जाता है। जब वे मौन रहते हैं, तो प्रवाह के बाहर आने के लिए कोई दवार नहीं बचता है, सारे दवार – दरवाजे बंद होते हैं, इसलिए मन भीतर ही भीतर
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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