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________________ अवस्था में एक अंतर्दृष्टि उतरने लगेगी, कि तुम शरीर नहीं हो, कि तुम मन नहीं हो। ऐसा नहीं कि तुम इसे कहते फिरोगे? तब यह एक वास्तविकता होगी। ठीक वैसे ही, जैसे सूरज सामने चमक रहा हो, तो यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं होती कि सूरज चमक रहा है। जैसे कि पक्षी चहचहा रहे हों, तो यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं होती कि पक्षी चहचहा रहे हैं। पक्षियों की आवाज सुनी जा सकती है और बिना कुछ कहे कि वे चहचहा रहे हैं, उसके प्रति होशपूर्ण हो सकते हैं। धीरे – धीरे स्वयं को तैयार करो और एक दिन तुम जान जाओगे कि तुम न तो शरीर हो और न मन हो-और न ही तुम आत्मा भी हो! तुम एक रिक्तता, एक खालीपन-एक शून्यता हो। तुम होंलेकिन फिर कोई बंधन नहीं है, कोई सीमा नहीं है, किन्हीं सीमाओं के घेरे में कैद नहीं हो, फिर तुम्हारी कोई व्याख्या या परिभाषा नहीं है। उस परम मौन में व्यक्ति जीवन के, अस्तित्व के परम शिखर पर पहुंच जाता है, पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। दूसरा प्रश्न: जब भी मेरी स्वयं के साथ और आपके साथ एकात्मकता आ बनती है तो मेरा मन एक बड़ी अहंकार यात्रा पर निकल पड़ता है कि मेरा कितना अच्छा विकास हो रहा है। फिर शीघ्र ही वापस कीचड़ में गिरना हो जाता है। कृपया आप मुझे सहारा देगे? फिर से वही? तुम फिर से कीचड़ में जा पड़ोगे। तुम सहारा देने की बात करते हो? मैं तुम्हें सहारा नहीं दे सकता हूं, मैं तुम्हें प्रोत्साहित नहीं कर सकता हूं। मैं तुम्हें पूरी तरह से निरुत्साहित कर देना चाहता हूं, ताकि तुम फिर कभी कीचड़ में न गिरो। सहारा देने की बात पूछ कौन रहा है? वही अहंकार ही तो पूछ रहा है न सहारा देने की। तुम अपने प्रश्नों को बदलते रहते हो, लेकिन सूक्ष्म रूप से वे वही के वही होते हैं -जैसे कि तुमने सच्चाई को, वास्तविकता को देखने का निश्चय ही कर लिया है। अब तुमने वास्तविकता को देख लिया है, लेकिन फिर भी तुम उसे झुठलाना चाहते हो। 'जब भी मेरी स्वयं के साथ और आपके साथ एकात्मकता आ बनती है तो मेरा मन एक बड़ी अहंकार यात्रा पर निकल पड़ता है कि मेरा कितना अच्छा विकास हो रहा है। फिर शीघ्र ही वापस से कीचड़ में गिरना हो जाता है।'
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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