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________________ सारे के सारे धर्मशास्त्र अधिक से अधिक बुद्धि को प्रशिक्षित और अनुशासित कर सकते हैं। कोई भी धर्मशास्त्र सत्य की ओर, उस शुद्ध पुरुष की ओर-जो साक्षी है, जो जागरूकता है, उसकी ओर नहीं ले जा सकता है। 'पुरुष, सदचेतना और सत्व, सदबुद्धि के बीच अंतर कर पाने की अयोग्यता.....।' यही है वास्तविक कारण अज्ञान में, अंधकार में, संसार में, पदार्थ में भटकने का। स्वयं की वास्तविकता से दूर हटने का, और अपनी ही धारणाओं और प्रक्षेपणों का शिकार हो जाने का। ......यद्यपि ये तत्व नितांत भिन्न हैं।' तुम इसे देख भी सकते हो। यहां तक कि अच्छे से अच्छा विचार भी तुम से भिन्न होता है, अलग होता है -इसे अपने भीतर उठने वाले विषय -वस्तु की भांति देखा भी जा सकता है। अच्छे से अच्छा विचार भी भीतर किसी वस्तु की तरह ही बना रहता है, और तुम उससे कहीं दूर खड़े रहते हो। जैसे किसी ऊंची पहाड़ी पर खड़ा सजग द्रष्टा, नीचे किसी विचार की ओर देख रहा हो। कभी भी किसी विषय-वस्तु के साथ तादात्म्य मत बना लेना। 'स्वार्थ पर संयम संपन्न करने से अन्य ज्ञान से भिन्न पुरुष ज्ञान उपलब्ध होता है। स्वार्थसंयमात्युरुष ज्ञानम्। पतंजलि कह रहे हैं,'स्वार्थ परम ज्ञान ले आता है।' स्वार्थ। स्वार्थी हो जाओ, यही है धर्म का वास्तविक मर्म। यह जानने का प्रयास करो कि तुम्हारा वास्तविक स्वार्थ क्या है। स्वयं को दूसरों से अलग पहचानने का प्रयास करो –परार्थ, दूसरों से अलग। और यह मत सोचना कि जो लोग तुम से अलग हैं, बाहर हैं, वही दूसरे हैं। वे तो दूसरे हैं ही लेकिन तुम्हारा शरीर भी दूसरा है। एक दिन तुम्हारा शरीर भी मिट्टी में मिल जाएगा; शरीर भी इस पृथ्वी का ही अंश है। तुम्हारी श्वास भी तुम्हारी नहीं है, वह भी दूसरों के द्वारा दी हुई है; वह हवा में वापस लौट जाएगी। बस, कुछ थोड़े समय के लिए ही तुम्हें श्वास दी गयी है। वह श्वास उधार मिली हई है तुम्हें उसे लौटाना ही होगा। तुम यहां नहीं रहोगे, लेकिन तुम्हारी श्वास यहां हवाओं में रहेगी। तुम यहां नहीं रहोगे, लेकिन तुम्हारा शरीर पृथ्वी में रहेगा-मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। जिसे अभी तुम अपना रक्त समझते हो, वह नदियों में प्रवाहित हो रहा होगा। सभी कुछ यहीं समाहित हो जाएगा। लेकिन एक चीज तुमने किसी से उधार नहीं ली है और वह है तुम्हारा साक्षी भाव, वह है तुम्हारी जागरूकता। बुदधि खो जाएगी, तर्क खो जाएगा। यह सभी ऐसे ही हैं जैसे आकाश में बादल आते हैं वे आते हैं और फिर चले जाते हैं, लेकिन आकाश वही का वही रहता है। तुम विराट आकाश की भांति ही बने रहोगे। वही अनंत विराट आकाश पुरुष है –अंतर- आकाश ही पुरुष है।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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