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________________ 'हालांकि मैं जानता हूं कि मैंने यात्रा के अभी कुछ चरण ही परे किए हैं, आपके साथ अधिकाधिक क्षण मुझे जुड़ने के मिल रहे हैं, जबकि लगता ऐसा है कि यही यात्रा का अंत है। यह पीड़ादायी भी है और मधुर भी है, पीड़ादायी इसलिए है, क्योंकि अब आप दिखायी नहीं देते हैं वहां जैसे ही तुम स्वयं को देखने में समर्थ हो जाते हो, तो तुम फिर मुझे और नहीं देख पाओगे, क्योंकि फिर दो शून्यताएं एक दूसरे के सामने आ जाएंगी, दो दर्पण एक -दूसरे के सामने हो जाएंगे। वे एक दूसरे में से प्रतिबिंबित होंगे, लेकिन फिर भी कुछ प्रतिबिंबित न होगा। '......यह बात पीड़ादायी भी है और मधुर भी है : पीड़ादायी इसलिए है, क्योंकि अब आप दिखायी नहीं देते हैं वहां, लेकिन साथ ही यह मधुर भी है कि आप हर कहीं मुझे अनुभव होते हैं।' ही, जिस क्षण तुम मुझे इस कुर्सी पर न देख सकोगे, तुम मुझे सब ओर देखने में सक्षम हो जाओगे। 'कहीं मैं इतना न खो जाऊं कि आपको धन्यवाद भी न कह सकू। तो कृपया, क्या मैं अभी आपको धन्यवाद कह सकता हूं. जबकि आप अभी मेरे लिए मौजूद हैं?' धन्यवाद की कोई आवश्यकता भी नहीं है। अजित का पूरा अस्तित्व ही मेरे प्रति धन्यवाद से भरा हुआ है। इसे कहने की कोई जरूरत नहीं है तुम्हारे कहने से पहले ही मैं इसे सुन चुका हूं। आज इतना ही। प्रवचन 77 - परमात्मा की भेंट ही अंतिम भेंट योग-सूत्र: सत्वपुरूषयोरत्यन्तासंकीर्णयों: प्रत्यायविशेषो भोग: परार्थत्वात् स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम्।। 36।। पुरुष, सद चेतना और सत्व, सदबुद्धि के बीच अंतर कर पाने की अयोग्यता के परिणामस्वरूप अनुभव के भोग का उदभव होता है. यदयपि ये तत्व नितांत भिन्न हैं। स्वार्थ पर संयम संपन्न करने से अन्य ज्ञान से भिन्न पुरुष ज्ञान उपलब्ध होता है।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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