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________________ यदि तुम आत्मवान नहीं हो, अखंड नहीं हो, तो जहां कहीं भी तुम होगे तुम सदा चूकते ही रहोगे। तुम कभी कहीं चैन से नहीं रहने पाओगे। तुम सदा ही कहीं न कहीं जा रहे होओगे और कभी कहीं पहुंचोगे नहीं। तुम पागल हो जाओगे। वह जीवन जो 'यम' के विपरीत है, विक्षिप्त हो जाएगा। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पश्चिम में पूर्व की अपेक्षा ज्यादा लोग पागल होते हैं। पूर्व मेंजाने, अनजाने-अभी भी थोड़े आत्म-संयम का जीवन जीया जाता है। पश्चिम में आत्म-संयम की बात गुलामी जैसी मालूम पड़ती है; आत्म-संयम के विरुद्ध होना ऐसे मालूम पड़ता है जैसे कि तुम मुक्त हो, स्वतंत्र हो। लेकिन जब तक तुम आत्मवान न हो जाओ, तम मुक्त नहीं हो सकते हो। तुम्हारी स्वतंत्रता एक प्रवंचना होगी; वह आत्महत्या के सिवाय और कुछ न होगी। तुम मार डालोगे स्वयं को, नष्ट कर दोगे अपनी संभावनाओं को, अपनी ऊर्जाओं को; और एक दिन तुम अनुभव करोगे कि जीवन भर तुमने इतनी कोशिश की, लेकिन पाया कुछ भी नहीं, उससे कोई विकास नहीं हुआ। आत्म-संयम का अर्थ है, पहला अर्थ : जीवन को एक दिशा देना। आत्म-संयम का अर्थ है, केंद्र में थोड़ा और प्रतिष्ठित होना। कैसे तुम और केंद्रित हो सकते हो? जब तुम अपने जीवन को दिशा देते हो, तो तुरंत तुम्हारे भीतर एक केंद्र बनना शुरू हो जाता है। दिशा से निर्मित होता है केंद्र; फिर केंद्र देता है दिशा। और वे परस्पर एक-दूसरे को बढ़ाते हैं। जब तक तुम आत्म-संयमी नहीं होते, दूसरी बात की संभावना नहीं है। इसीलिए पतंजलि उसे पहला चरण कहते हैं। दूसरा चरण है 'नियम'| एक सुनिश्चित नियमन : वह जीवन जिसमें कि अनुशासन है, वह जीवन जिसमें कि नियमितता है, वह जीवन जो कि बहुत ही अनुशासित ढंग से जीया जाता है, अव्यवस्थित नहीं। एक नियमितता है। लेकिन वह भी तुम्हें गुलामी जैस लगेगा। पतंजलि के समय के सारे सुंदर शब्द अब कुरूप हो गए हैं। लेकिन मैं कहता हूं तुमसे कि जब तक तुम में और तुम्हारे जीवन में नियमितता नहीं आती, अनुशासन नहीं आता, तब तक तुम गुलाम ही रहोगे अपनी वृत्तियों के-और तुम सोच सकते हो कि यही स्वतंत्रता है, लेकिन तम गलाम रहोगे अपने आवारा विचारों के। यह स्वतंत्रता नहीं है। भले ही तुम्हारा कोई प्रकट मालिक न हो, लेकिन तुम्हारे बहुत से अप्रकट मालिक होंगे तुम्हारे भीतर; और वे तुम पर शासन करते रहेंगे। केवल वही आदमी जिसके पास नियमितता होती है, किसी दिन मालिक हो सकता है। वह भी बहुत दूर है अभी, क्योंकि असली मालिक का केवल तभी आविर्भाव होता है जब आठवां चरण पा लिया जाता है-जो कि लक्ष्य है। तब व्यक्ति हो जाता है जिन, जिसने जीता। तब व्यक्ति हो जाता है बुद्ध, जो जाग गया। तब व्यक्ति हो जाता है क्राइस्ट, मुक्तिदाता–क्योंकि यदि तुम मुक्ति पा गए हो, तो अचानक तुम दूसरों के लिए मुक्ति देने वाले हो जाते हो। ऐसा नहीं है कि तुम उन्हें
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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