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________________ - जी सकते हो, जो विपरीत दिशाओं में गति करता हो, बहुत सी दिशाओं में जाता हो तब तुम कभी भी कहीं नहीं पहुंचोगे। यह उस कार की भांति है, जिसका ड्राइवर कुछ मील उत्तर की ओर जाता है, फिर बदल लेता है मन; फिर कुछ मील पश्चिम की ओर जाता है, फिर बदल लेता है मन, और इसी भांति चलता रहता है। वह वहीं मरेगा जहां वह पैदा हुआ था। वह कभी कहीं नहीं पहुंचेगा। वह कभी तृप्ति की अनुभूति नहीं पाएगा। तुम बहुत से रास्तों पर चल सकते हो, लेकिन जब तक तुम्हारे पास दिशा नहीं है, तुम व्यर्थ ही चल रहे हो। तुम केवल और और निराशा अनुभव करोगे, और कुछ भी नहीं । आत्म-संयम का अर्थ है, पहली बात तुम्हारी जीवन-ऊर्जा को सम्यक दिशा देना । जीवन-ऊर्जा सीमित है। यदि तुम उसका उपयोग नासमझी और दिशाहीन ढंग से करते हो, तो तुम कहीं भी नहीं पहुंचोगे। देर—अबेर तुम्हारी ऊर्जा चुक जाएगी - और वह खालीपन बुद्ध का शून्य न होगा; वह बिलकुल नकारात्मक खालीपन होगा - भीतर कुछ भी नहीं, एक खोखला रिक्त पात्र । तुम मरने के पहले ही मर जाओगे। 7 लेकिन ये सीमित ऊर्जाएं जो तुम्हें मिली हैं प्रकृति से अस्तित्व से परमात्मा से या जो भी कहना चाहो उसे ये सीमित ऊर्जाएं इस ढंग से प्रयोग की जा सकती हैं कि वे असीम के लिए द्वार बन सकती हैं। यदि तुम ठीक ढंग से बढ़ते हो, यदि तुम होशपूर्वक बढ़ते हो, यदि तुम बोधपूर्वक बढ़ते हो, अपनी सारी ऊर्जाओं को इकट्ठा कर लेते हो और एक ही दिशा में बढ़ते हो, तो तुम भीड़ नहीं रहते बल्कि एक व्यक्ति हो जाते हो यही है यम का अर्थ । - साधारणतया तुम एक भीड़ हो; बहुत सी आवाजें हैं तुम्हारे भीतर एक कहती है, 'इस दिशा में जाओ।' दूसरी कहती है, यह तो बेकार है। उधर जाओ।' एक कहती है, मंदिर जाओ।' दूसरी कहती है, 'थिएटर जाना बेहतर होगा।' और तुम्हें कभी कहीं चैन नहीं मिलता, क्योंकि तुम कहीं भी जाओ, तुम पछताओगे। यदि तुम थिएटर जाते हो तो जो आवाज मंदिर जाने के लिए कह रही थी वह तुम्हारे लिए बेचैनी पैदा करेगी : 'तुम यहां क्या कर रहे हो? अपना समय बरबाद कर रहे हो? तुम्हें तो मंदिर में होना चाहिए था ! और प्रार्थना सुंदर बात है। और कौन जाने, वहां क्या हो रहा हो ! और कौन जाने, यही अवसर हो तुम्हारे बुद्धत्व के लिए और तुम फिर चूक गए।" यदि तुम मंदिर जाओ, तो भी यही होगा वह आवाज जो थिएटर जाने के लिए कह रही थी, वह कहने लगेगी. 'यहां क्या कर रहे हो तुम? एक मूढ़ की भांति तुम यहां बैठे हो। और तुमने पहले भी प्रार्थनाएं की हैं और कुछ भी नहीं हुआ। क्यों तुम अपना समय व्यर्थ गंवा रहे हो?' और अपने चारों ओर तुम देखोगे मूढ लोगों को बैठे हुए और व्यर्थ की चीजें करते हुए कुछ भी नहीं हो रहा। कौन जाने - थिएटर में कैसा मजा मिलता, कितना आनंद होता। तुम चूक रहे हो.। -
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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