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________________ ऐसा स्मरण रखना कठिन है, क्योंकि वृक्ष इतना सुंदर है और फूल इतना चुंबकीय आकर्षण रखते हैं कि वे तुम्हें सम्मोहित करते हैं। तुम खो जाना चाहोगे। तुम स्वयं को भूल जाना चाहोगे। असल में तुम सदा स्वयं को भूल जाने की, स्वयं से बचने की तलाश में ही होते हो। तुम इतने ऊब गए हो स्वयं से...। कोई नहीं चाहता स्वयं के साथ रहना। स्वयं से बचने के लिए ही तुम हजारों रास्ते खोज लेते हो। जब तुम कहते हो, 'वृक्ष सुंदर है, तो तुमने कर लिया होता है बचाव; तुम स्वयं को भूल चुके होते हो। जब तुम पास से गुजरती किसी सुंदर स्त्री को देखते हो, तो तुम भूल जाते हो स्वयं को। द्रष्टा खो जाता है दृश्य में। हो जाना। धीरे - 1 द्रष्टा को खोने मत देना दृश्य में बहुत बार खो जाएगा वह वापस बुला लेना उसे फिर फिर द्रष्टा - धीरे तुम थिर हो जाओगे। धीरे- धीरे तुम मजबूत होओगे। कोई चीज पास से गुजरती हो - कोई भी चीज - चाहे ईश्वर ही गुजरता हो, पतंजलि कहते हैं, ध्यान रहे कि तुम द्रष्टा हो और वह दृश्य है।' इस भेद को भूल मत जाना, क्योंकि केवल इस भेद से ही तुम्हारी दृष्टि साफ होगी, तुम्हारी चेतना एकाग्र होगी, तुम्हारी सजगता घनीभूत होगी, तुम्हारा अस्तित्व जड़ें पाएगा और केंद्रित होगा। फिर-फिर लौट आओ, फिर-फिर उतरो आत्म-स्मरण में ध्यान रहे, आत्म-स्मरण कोई अहंस्मरण नहीं है; यह नहीं याद रखना है कि मैं हूं नहीं, यह याद रखना है कि भीतर द्रष्टा है और बाहर दृश्य है। यह प्रश्न 'मैं' का नहीं है; यह प्रश्न है चेतना का और चेतना की विषय-वस्तु का। 'अज्ञान के विसर्जन द्वारा द्रष्टा और दृश्य का संयोग विनष्ट किया जा सकता है। यही मुक्ति का उपाय है।' तुम अपने चारों ओर की चीजों के प्रति जैसे-जैसे और सजग होते हो, तो धीरे - धीरे -धीरे तुम पाओगे कि केवल संसार ही तुम्हें नहीं घेरे हुए है, तुम्हारा अपना शरीर भी तुम्हें घेरे हुए है। वह भी दृश्य है। मैं जान सकता हूं अपने हाथ को, मैं अनुभव कर सकता हूं अपने हाथ को तो जरूर मैं हाथ से अलग हूं। यदि मैं शरीर ही होता तो कोई उपाय न था शरीर को अनुभव करने का। कौन अनुभव करता उसे? जानने के लिए पृथकता की जरूरत होती है। सारा ज्ञान, सारा जानना, पृथक कर देता है। सारा अज्ञान विस्मरण है पृथकता का। जब तुम सजग होते हो कि शरीर भी अलग है, तो तुम्हारी चेतना स्वयं में थिर होने लगती है। फिर - तुम सजग होते हो कि तुम्हारी भावनाएं, तुम्हारे विचार वे भी अलग हैं, क्योंकि तुम उन्हें भी देख सकते हो। तुमने देखा है उन्हें बहुत बार, लेकिन तुम्हें याद नहीं रहता कि तुम पृथक हो तुम देखते हो कि मन के परदे पर एक विचार गुजर रहा है। वह आकाश में गुजरते बादल की भांति है। तुम सफेद बादल को या काले बादल को गुजरते हुए देखते हो जो कि उत्तर की ओर बढ़ रहा है।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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