SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अज्ञान के विसर्जन दवारा द्रष्टा और दृश्य का संयोग विनष्ट किया जा सकता है। यही मक्ति का उपाय है। कहां से प्रारंभ करें? क्योंकि पतंजलि की रुचि सदा प्रारंभ में है। यदि प्रारंभ स्पष्ट नहीं है तो हम बात किए जा सकते हैं कि मुक्ति क्या है, लेकिन वह बातचीत ही रहेगी। प्रारंभ को बिलकुल स्पष्ट होना चाहिए-हर कदम एकदम स्पष्ट, ताकि तुम वहा से आगे बढ़ सको जहां कि तुम हो। यदि तुम लाओत्सु को सुनते हो तो लाओत्सु बोलते हैं शिखर से, मानव-चेतना के उच्चतम शिखर से; यदि तुम तिलोपा से पूछो, तो वे वहां से उत्तर देते हैं, जहां वे हैं। यदि तुम पतंजलि से पूछो, तो वे वहां से बोलते हैं जहां तुम हो। वे अपने बारे में कुछ नहीं कहते; वे वहां से बोलते हैं जहां तुम हो-प्रारंभ से। वे ज्यादा व्यावहारिक हैं; लाओत्स् ज्यादा प्रामाणिक हैं। पतंजलि ज्यादा उपयोगी हैं। कल ही किसी ने पूछा था कि मैं निरंतर लाओत्स् पर ही क्यों नहीं बोलता रहता! तुम्हारे कारण। यदि मैं अकेला होता, तो ठीक था, एकदम ठीक था; लेकिन तुम भी मौजूद हो, और तुम्हें मैं भूल नहीं सकता। जब मैं लाओत्सु पर बोलता हूं तो मुझे तुम्हें बहुत पीछे छोड़ देना पड़ता है। फिर तुरंत मैं बोलने लगता हूं पतंजलि पर या किसी और पर जो तुम्हारे बारे में और तुम्हारे पहले चरणों के बारे में कहता हो। और अंतर बहुत बड़ा है। तुम लाओत्सु का आनंद ले सकते हो, लेकिन तुम कुछ कर नहीं सकते, क्योंकि वे कुछ कहते ही नहीं करने के विषय में। उन्होंने पा लिया है और वे बात करते हैं अपनी उपलब्धि की-उसी जगह से। दोनों बिलकुल अलग बातें हैं। तुम उनके द्वारा सम्मोहित हो सकते हो, तुम्हारे लिए उनकी दृष्टि का बड़ा आकर्षण हो सकता है, लेकिन वह बात काव्य ही बनी रहेगी। वह रोमांस भर रहेगी; वह अनुभव न बनेगी, वह प्रयोगात्मक न बनेगी। अपना यात्रा-पथ तुम लाओत्सु द्वारा न खोज पाओगे। हर चीज एकदम सत्य है, लेकिन प्रारंभ कहां से करो? जिस क्षण तुम अपने प्रति सजग होते हो, लाओत्सु बहुत दूर मालूम होते हैं, बहुत ही दूर...। पतंजलि तुम्हारे एकदम निकट हैं। तुम उनके हाथ में हाथ दिए चल सकते हो। वे प्रारंभ की बात करते हैं। '.. द्रष्टा और दृश्य का संयोग विनष्ट किया जा सकता है।' तो पहले कदम को ही खयाल में ले लेना है ध्यानपूर्वक, कि तुम पृथक हो दृश्य से : जो भी तुम देखते हो, तुम द्रष्टा हो। एक वृक्ष है, बहुत हरा-भरा और बहुत सुंदर, फूलों से लदा-लेकिन वृक्ष है तो दृश्य ही; तुम द्रष्टा हो। पृथक करो उन्हें। ठीक से जानो कि वृक्ष वहां है और तुम यहां हो; वृक्ष बाहर है, तुम भीतर हो, वृक्ष दृश्य है और तुम द्रष्टा हो।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy