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________________ जब कोई विचार गुजर रहा हो तो बस देखना कि वह कहा जा रहा है, कहां से आ रहा है। ध्यान से देखना उसे। उससे उलझ मत जाना; उसके साथ एक मत हो जाना। यह जुड़ जाना, यह एक हो जाना, तादात्म्य कहलाता है. और यही है अज्ञान। तादात्म्य से तुम अज्ञान में रहते हो। तादात्म्य-हीन होकर-पृथक, साक्षी, द्रष्टा होकर-तुम बोध की दिशा में बढ़ते हो। यही वह विधि है जिसे उपनिषद कहते हैं नेति-नेति की विधि, विसर्जन की विधि। तुम देखते हो संसार को-और जानते हो, मैं संसार नहीं। तुम देखते हो शरीर को-और जानते हो, मैं शरीर नहीं। तुम देखते हो विचार को-और जानते हो, मैं विचार नहीं। तुम देखते हो भावना को-और जानते हो, मैं भावना नहीं। इसी तरह तम कांटते जाते हो, कांटते जाते हो, कांटते जाते हो-एक घड़ी आती है जब केवल द्रष्टा बचता है; सारे दृश्य कट जाते हैं। और दृश्य के तिरोहित होने के साथ ही सारा संसार तिरोहित हो जाता है। चेतना के उस परम एकांत में बड़ा सौंदर्य है, बड़ी सादगी, बड़ी निर्दोषता, बड़ी सहजता है। उस चेतना में प्रतिष्ठित होते ही, उस चेतना में थिर होते ही कोई चिंता नहीं रहती, कहीं कोई चिंता नहीं-कोई बेचैनी, कोई संताप, कोई पीड़ा नहीं; कोई घृणा, कोई प्रेम, कोई क्रोध नहीं। हर चीज खो जाती है; केवल तुम होते हो। यह अनुभूति भी कि 'मैं हूं? नहीं रहती। क्योंकि यदि तुम अनुभव करते हो कि 'मैं हूं?, तो तुम सजग हो सकते हो उस अनुभूति के प्रति-जो कि तुम से पृथक है। अकेले तुम होते हो। बस, तुम होते हो। इतने सहज-सरल कि कोई भाव नहीं होता कि 'मैं हूं, मात्र एक 'हूं –पन', एक होना मात्र बचता है। यही है व्याख्या अंतस सत्ता की। यह कोई दर्शनशास्त्र का प्रश्न नहीं है, कि कैसे इसकी व्याख्या करें, यह बात है अनभव की, कि कैसे इसका अनुभव करें। सब कुछ खो जाता है; सारे स्वप्न तिरोहित हो जाते हैं; सारा संसार तिरोहित हो जाता है। तुम स्वयं में प्रतिष्ठित रहते हो कुछ न करते हए। विचार की एक तरंग भी नहीं होती, भाव का एक हलका सा झोंका भी नहीं गुजरता तुम्हारे पास से-हर चीज इतनी थिर होती है और इतनी शांत. समय थम जाता है, दूरी मिट जाती है। यह एक भावातीत अतिक्रमण की घड़ी होती है। इस घड़ी में, पहली बार, तुम अज्ञानी नहीं रहते। इस तरह तुम अस्तित्वगत रूप से विकसित होते हो। रस साह पूण जानन पाल बनत हा, जानकारी रखन वाल नहा। तमन कछ सचनाए एकात्रत नहा का हैं, बल्कि तुमने वह सब अलग कर दिया है जो कि तुम्हें घेरे हुए था। बिलकुल नग्न, निर्वस्त्र, शून्य की भांति, खाली होते हो तुम। पतंजलि कहते हैं कि यही है अज्ञान से मुक्ति। तो पहली बात है, अलग किए जाओ। तुम जो कुछ भी देखो, सदा ध्यान रहे द्रष्टा का, कि 'मैं अलग हूं, और तुरंत एक मौन तुम्हें घेर लेगा। जिस क्षण तुम्हें याद आ जाता है, 'मैं द्रष्टा हूं और दृश्य नहीं हूं?, उसी क्षण तुम इस संसार का हिस्सा नहीं रह जाते-तत्क्षण तुम रूपांतरित हो जाते हो। हो सकता है
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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