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________________ यदि उस झलक को तुम अपनी स्थायी जीवन-शैली बनाना चाहते हो, अपनी अंतस सत्ता बनाना चाहते हो तो तुम्हें यात्रा करनी पड़ेगी, दूरी को मिटाना होगा, अंतराल को पार करना होगा। तुम्हें विकसित होना पड़ेगा। एक बार तुम शुद्ध चैतन्य को उपलब्ध हो जाते हो, तब फिर उससे बाहर गिरना नहीं होता। वह है वापस न होने की अवस्था। तुम केवल भीतर जाते हो; तुम बाहर कभी नहीं आते। वहां कोई बाहर आने का दवार नहीं है; केवल एक ही दवार है-प्रवेश द्वार। सातवां प्रश्न : आपने कहा कि बुद्ध स्वार्थी थे क्या जीसस भी स्वार्थी थे? यदि ऐसा है तो उनके इस कथन का क्या अर्थ है : 'यदि किसी को मेरे पीछे आना है तो उसे स्वयं को इनकार करना होगा उठाओ अपना क्रॉस और आओ मेरे पीछे।' हा, जीसस भी स्वार्थी हैं; अन्यथा संभव ही नहीं है। जीसस, कृष्ण, जरथुस्त्र, बुद्ध-सभी स्वार्थी हैं; क्योंकि इतनी करुणा है उनमें! वह संभव नहीं है यदि वे आत्म-केंद्रित न हों। वह संभव नहीं है यदि उन्होंने अपना आनंद उपलब्ध न कर लिया हो। पहली तो बात, आनंद पास में होना चाहिए; केवल तभी कोई बांट सकता है। और उन्होंने खूब बांटा-इतना बांटा कि कई सदियां बीत गई हैं, लेकिन वे अभी भी बांट रहे हैं। यदि तुम प्रेम करते हो जीसस को, तो अचानक तुम उनकी करुणा से भर जाते हो। उनका प्रेम अब भी बह रहा है। शरीर मिट चुका है, लेकिन उनका प्रेम नहीं मिटा है। वह जगत की एक शाश्वत घटना बन गया है। वह सदा उपलब्ध रहेगा। जब भी कोई तैयार होगा, ग्रहणशील होगा, तो उनका प्रेम बहेगा। लेकिन यह इसीलिए संभव है क्योंकि वे अपने मूल-स्रोत को उपलब्ध हुए. वे निश्चित हां स्वार्थी हैं। तो फिर इस कथन का क्या अर्थ है, क्योंकि ये शब्द तो विरोधाभासी मालूम पड़ते हैं : 'यदि किसी को मेरे पीछे आना है तो उसे स्वयं को इनकार करना होगा...।' हां, यह विरोधाभासी लगता है। यदि मैं सत्य हं तो ये शब्द मेरे विपरीत लगते हैं। मेरा कथन सत्य है और उनका कथन भी मेरे विपरीत नहीं है। विरोधाभास केवल बाह्य प्रतीति है, क्योंकि जीसस कह रहे हैं. 'यदि तुम स्वयं को उपलब्ध होना चाहते हो तो तुम्हें स्वयं को खोना पड़ेगा, यही मार्ग है।' तो जब जीसस कहते हैं, 'यदि किसी को मेरे पीछे आना है तो उसे स्वयं को इनकार करना होगा...।' तो इसीलिए कहते हैं क्योंकि यही मार्ग है अपने तक आने का। तुम स्वयं को
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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